ज़िन्दगी
ज़िन्दगी को न समझ सकी ज़िन्दगी ।
बस इस तरह कटती रही ज़िन्दगी ।।
करती रही वादे बार बार ज़िन्दगी ।
अनसुलझी सी रही फिर भी ज़िन्दगी ।।
पाकर ख्याल खो गईं हक़ीक़तें ।
क्यों ख़्याल पालती रही ज़िन्दगी ।।
पढ़ी थी किताबों में जो आज तक ,
बस बेहतर तो बही थी ज़िन्दगी ।।
जी रही दुनियाँ दुनियाँ के वास्ते ,
फिर भी दुनियाँ में नही ज़िन्दगी ।।
रूठता क्यों है तू अपने आप से ,
तेरे ही वास्ते तो जी रही यह ज़िन्दगी ।।
….. विवेक ….