ज़िन्दगी भी हाल अपना देख कर हैरान है
ज़िन्दगी भी हाल अपना देख कर हैरान है
रोज़ लाशे बिछ रहीं है ,मौज में शमशान है
शर्मसा खुद हो रहीं हैं सब दिशाएं लाज से
बेयकीनी की बयारें, बेअदब इंसान है
इक कहर – सी बन गई है ,यातना है ,ज़िन्दगी
त्रासदी कुंठा घुटन है, जूझती पहचान है
अक्स खाता खौफ खुद ही आइनो को देखकर
हर गली में,हर सड़क पर ,बिक रहा इंसान है
बेबसी का इक समुंदर दूर तक फैला हुआ
रास्ते सब मिट चुके हैं,मंजिले सुनसान है
राख ही बस राख है ,चारों तरफ बिखरी हुई
आग बारिश में लगी है,कैद में तूफान है
बेइरादा हो रही है वक़्त की ये तल्खियां
या कि मेरे वास्ते फिर नया इम्तेहान है
बस रिवाजों में ही है जिंदा यहां इंसानियत
इस शहर की धड़कनों से,बेदखल ईमान है
~© प्रिया मैथिल