ज़िंदादिल उमंग
बढ़ती हुई उम्र की पहचान हूँ ,
अब तो मैं ज़िंदादिल इन्सान हूँ ,
मेरी बालों की सफेदी में मेरा तज़ुर्बा छुपा है ,
मेरी आँखों मे मेरा नज़रिया बसा है ,
मेरे ज़ेहन को मेरे कमाये इल्म़ से वास्ता है ,
मेरे दिल में पैवस्त इन्सानियत का जज़्बा है ,
मैने अमीरी देखी है ,
मुफ़लिसी में गुज़ारा किया है ,
मैने वफ़ा की क़ीमत जानी है,
अपनों से धोखा खाया है,
मैने फ़र्ज और ज़र्फ़ के फ़र्क को जाना है ,
मैने अख़्लाक़ और फ़ितरत को पहचाना है ,
अपनों की ख़ातिर अपने ख़्वाहिशों की
क़ुर्बानी को जाना है ,
अना के नुक़्सान और ख़िरद की
नफ़ा’ – रसाई को पहचाना है ,
अब भी कुछ कर गुज़रने की उमंग
मुझमें बाक़ी है ,
उम्र की इस ढलान में अब भी
मेरे पास वक़्त काफ़ी है।