* ज़ालिम सनम *
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
मिटा कर नाम अपना
मैं तेरा लिख रहा था ।
कहीं इक गूंज गूंजी
तू ये क्यों कर रहा था ।
बड़ी तफ़सील से मैंने
कहा उससे, कि अब,
मुझमें मेरा कुछ भी ।
रहा ना, लूट कर वो
जालिम जब से मिरा ।
चैन है ले गया, न मिलता है
न दिखता है , न आता है ।
न ही बुलाता है , तोड़ कर
रिश्ता कुछ इस कदर
वो शैतान मुझसे गया है ।