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17 Jun 2018 · 1 min read

जहां में हर किसी को

रहता मेरा खजाना भरा जिसे खर्च करता कहां

ज़हां में हर किसी को सारा इतना मिलता कहां

***
चाहत पे शक था उसे इधर-उधर भटकाता रहा

हर बार खाकर ठोकरें उसी के दर पे आता रहा

***

दिल खोल-खोल कर वह सब कुछ लुटाता रहा

संकुचित मेरी हथेली रही व सब फिसलता रहा

***

ये मेरी मृगतृष्णा रही मैं जंगलों को भागता रहा

सबकुछ अन्दर में था व्यर्थ ही ढ़ूढ़ता बाहर रहा

***

नहीं पास जिनके कुछ भी उन्हीं से मांगता रहा

यह सब भरम ही रहा जो भरमाता मुझको रहा

***

आदतें खराब थी मैं हर जगह आता जाता रहा

जब वह न मिला तो मैं अन्दर से पछताता रहा

***

जब -जब वह मिला तब-तब हृदय हर्षाता रहा

मुख से नहीं आंखों से सबकुछ कह जाता रहा

***

मेरी समझ नहीं थी उसको न समझ पाता रहा

जबकि उसका इशारा हर कदम पर आता रहा

***

वह मेरी अदा पे मैं उसकी अदा पर मरता रहा

यह न उसने मुझसे और न ही मैंने उससे कहा

***

वह सब समझता है अंदर-अंदर समझता रहा

अंदर से पूरा हां था बाहर-बाहर न करता रहा

***

उसकी दया दृष्टि पर नमन करता झुकता रहा

रोज नए -नए आयाम जोड़ता जिंदगी से रहा

***

– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’

Language: Hindi
304 Views
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