जहां में हर किसी को
रहता मेरा खजाना भरा जिसे खर्च करता कहां
ज़हां में हर किसी को सारा इतना मिलता कहां
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चाहत पे शक था उसे इधर-उधर भटकाता रहा
हर बार खाकर ठोकरें उसी के दर पे आता रहा
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दिल खोल-खोल कर वह सब कुछ लुटाता रहा
संकुचित मेरी हथेली रही व सब फिसलता रहा
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ये मेरी मृगतृष्णा रही मैं जंगलों को भागता रहा
सबकुछ अन्दर में था व्यर्थ ही ढ़ूढ़ता बाहर रहा
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नहीं पास जिनके कुछ भी उन्हीं से मांगता रहा
यह सब भरम ही रहा जो भरमाता मुझको रहा
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आदतें खराब थी मैं हर जगह आता जाता रहा
जब वह न मिला तो मैं अन्दर से पछताता रहा
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जब -जब वह मिला तब-तब हृदय हर्षाता रहा
मुख से नहीं आंखों से सबकुछ कह जाता रहा
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मेरी समझ नहीं थी उसको न समझ पाता रहा
जबकि उसका इशारा हर कदम पर आता रहा
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वह मेरी अदा पे मैं उसकी अदा पर मरता रहा
यह न उसने मुझसे और न ही मैंने उससे कहा
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वह सब समझता है अंदर-अंदर समझता रहा
अंदर से पूरा हां था बाहर-बाहर न करता रहा
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उसकी दया दृष्टि पर नमन करता झुकता रहा
रोज नए -नए आयाम जोड़ता जिंदगी से रहा
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– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’