जहां पर गलतियों का मेरी मंजर ख़त्म होता है —ग़ज़ल।
गजल
जहां पर गलतियों का मेरी मंजर ख़त्म होता है
वही जीवन का मुश्किल वक्त अक्सर ख़त्म होता है
मगर इल्जाम से पहले न देखा आइना खुद जब
जहानत का वो दावा फिर यहीं पर ख़त्म होता है
बड़े मौके तुम्हारे सामने आकर खड़े होंगे
न हिम्मत हारना जब एक अवसर ख़त्म होता है
सफीना डूबने का डर रहेगा तब तलक उसको
के जब तक चापलूसों का न लश्कर ख़त्म होता है
रुके सदियों से पलकों पर इन्हें बहने दो के जब तक
जमीं से आसमां तक का समंदर ख़त्म होता है
जफ़ा के तीर चुभते हैं जिगर में दर्द सा रहता
मुझे अब देखना कब ये जिगर पर ख़त्म होता हैं
उड़ूँगी हौसलो के पर लगा ऊंची उड़ाने अब
जहां तक फैला सारा ही ये अम्बर ख़त्म होता है
किसी ने कह लिया होता किसी ने सुन लिया होता
यहां का आपसी झगड़ा तो मिलकर ख़त्म होता है
कसक गम दर्द बिन जीवन न जीवन ही लगे निर्मल
मेरा हर दर्द थोड़ी चोट खाकर ख़त्म होता है