जहरीला इंसान
तुम हो तो भीतर से जहरीले ,
मगर खुद को मीठा दर्शाते हो ।
तुम्हारी मानसिकता पिछड़ी हुए,
मगर खुद को आधुनिक जताते हो ।
तुम हो नीरे पाखंडी और धूर्त ,
मगर नाटक सज्जन बनने का करते हो ।
अभिमान ,स्वार्थ और लालच ,
तुम में कूट कूट के भरा है ।
मगर तुम अपना गिरेबान तो ,
कभी देखते ही नहीं हो ।
कोई तुम्हें आइना दिखाये,
तो उस बन्दे को शीशे सा तोड़ देते हो ।
एहसान फरामोश तो इतने हो ,
किसी का बरसों का उपकार पल में भूल जाते हो ।
तुम कैसे इंसान हो ?
तुम दिखते इंसान हो ,
मगर वास्तव में इंसान नहीं हो ।
तुम में मानवीय मूल्य ,इंसानियत ,
तो है ही नहीं ।
फिर तुम खुद को इंसान क्यों कहते हो ।