जल दिवस
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हिमागिर पिघलता है ।
सागर भी उबलता है ।
तपता है दिनकर,
धरा तन जलता है ।
पास नही देने उसके कुछ,
बादल प्यासा ही चलता है ।
धरती की आशाओं को ,
अब तो वो भी छलता है ।
मानव ही मानव का ,
संहारक यूँ बनता है ।
जीतूँ सृष्टि को मैं ,
यह अहं नही तजता है ।
शीतल था सदियों तक जो,
वो जल भी अब जलता है ।
हिमागिर पिघलता है ।
सागर भी उबलता है ।
सहजे दृग जल नैनन में ।
भाव भरें गागर मन में ।
सींच प्रेमरस बूंदे कुछ ,
न प्यास रहे धरा तन में ।
….. विवेक दुबे”निश्चल”@…
Blog post 23/3/18