जब भी आया,बे- मौसम आया
जब भी आया,बे- मौसम आया
न देख सके, न छू सके
जिसके ख़याल में डूबा था
वो अजनबी- सा इक मौसम था
किसे गले लगाऊँ, सादगी से…
जो वादे, कसमें सब फीके- फीके…
वो महकता- सा दिन, वो शाम
वो हिज्र की रातें, कैसे भूल जाऊँ
अब तो कुछ याद आ रहा है
नमी- सा चाँद, और वो पल…
कैसे भूलूँ जो तमन्ना ताउम्र में थे
लफ़्ज़ों के सजा लफ्जों में
कुछ इन्तजार था पहले से
उसने तो बेवफ़ा ही समझा
भरोसे में थी, जो ये आँखें…
– मनोज कुमार