जब उम्मीदों की स्याही कलम के साथ चलती है।
कुछ ख्वाहिशें सिर्फ जेहन तक का सफर करती हैं,
हाथों की लकीरें बस रेखाचित्र बनी फिरती हैं
होठों पे आयी मुस्कान उधार सदृश्य लगती है,
कितनी किस्तों में होगी अदायगी, वही मूल्यांकन करती है।
धूमवान पर्वत पर सरसरी सी नज़र रखती है,
पर अरमानों की चिता अंतर्मन में धधकती है।
जब कन्धों पे जिम्मेवारियाँ विजय पदक सी सजती है,
जीवन नए आयामों के द्वार पे इंतज़ार करती है।
पथरीली सी राहें अब सौम्य पगों का स्वागत करती हैं,
नदियाँ भी तो घाटी में लहू से सनकर बहती हैं।
बारिश की ये बूंदें कच्ची छतों को सजा सी लगती हैं,
वही बारिश न हो तो धरा कराह उठती है।
कितने जतन से ये दरख़्त रसीले फलों से लदती हैं,
क्या कभी दरख़्त भी अपने फलों को चखती हैं?
ये समंदर स्वयं में एक संसार समाये मचलती है,
और आशाएं एक पतवार थामे इसको भी पार करती हैं।
जब उम्मीदों की स्याही कलम के साथ चलती है,
निराशा के ज़खीरों को मरघट के नाम करती हैं।