जन्नत मुझको नहीं चाहिए
छोटी-मोटी पीड़ाएं मैं
प्रेमपूर्वक सह लूंगा
दोजख मुझको घर-सा होगा
उसमें भी मैं रह लूंगा
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जन्नत मुझको नहीं चाहिए
न ही बहत्तर हूरें ही
जो बारी-बारी से मुझ पर
प्रेम लुटाएं, घूरें भी
घरवाली-सी एक मिलेगी
तो उससे कुछ कह लूंगा
मधु में नहीं नहाना मुझको
न ही मुझे मधु पीना है
तप रत रह समीर सेवन कर
मुझे नर्क में जीना है
डांट-डपट की दाहकता में
मैं भी थोड़ा दह लूंगा
अभ्यंजन की मुझे न आदत
चरण नहीं चपवाना है
दूध और घी की न जरूरत
पय बिन काम चलाना है
काव्यपाठ से यमदूतों को
बहलाऊंगा, बहलूंगा
मुगदर नहीं भांजने मुझको
करना है व्यायाम नहीं
पड़े-पड़े कविता करनी है
करना है कुछ काम नहीं
मधुगंगा के तट पर प्रतिदिन
शाम-सवेरे टहलूंगा …
महेश चन्द्र त्रिपाठी