जनता
जनता………….!
: दिलीप कुमार पाठक
कुआँ सबको दिखे
इसमें क्या गड़बड़ी है ?
खुद को गड़ेड़िया समझ
भीड़ को भेंड़ बनाने की क्रिया को
क्या कहा जाएगा ?
ले जानेवाला हाथ
बीच बाजार से
भेंड़ की बाल की तरह
आदमी की चमड़ी उतार ले जाता है.
भीड़ देखती रहती है
टुकुर-टुकुर
तमाशा देखने की तरह.
कहा जाता है
कि
कोई आएगा करिश्माई चेहरा
और अपने अन्दाज से
बेहतर बनाएगा बाजार को.
कोई कहीं ढँढ रहा होता है
किसी राम को,
किसी कृष्ण को
ढूँढने वाले तो ढूँढ रहे होते हैं
हिटलर को भी.
समाज को चाहिए
जादूई ताकत.
समझा जाता है
यह उसकी आवश्यक आवश्यकता है.
अक्सर जाग्रत होती है
अलौकिक शक्ति से भर जाने की इच्छा
स्पाइडर मैन
या वह गड़ेड़िया
और चाहत होती है
भेंड़ों की.
कोई नहीं बनना चाहता जनता
जन-आन्दोलन बकवास है.
चलती रहती है साजिश
अंधेरे में रखने की
और हावी होती रहती हैं
कुछ जिन्दगियाँ
अपना आदर्श गढ़ते हुए.
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