जनक दुलारी राजनंदिनी सिया
जनक की दुलारी अति सुकुमारी सिया,
सखियों की प्यारी अति कोमलांगी सिया।
गई थी गौरी पुजन को फुल लाऊंगी उपवन से,
मिले वहां रघुनंदन राम लगे बड़े मनभावन से।
हे मां गौरा मिले मुझे पति रूप में रघुनंदन राम,
बैठ चरणों में किया प्रार्थना, है जो जग का पावन धाम।
मिली राम को सीता प्यारी,सिया को मिल गये रघुनंदन,
झूमी धरती,झूमा अंबर, झूमे देव किया अभिनंदन।
ब्याह कर आईं सिया सुकुमारी , पिया की नगरी अयोध्या देश,
राजा जनक रह गये ब्याकुल , बाबुल की नगरी हुईं परदेश।
झूमी सारी अयोध्या नगरी,महक उठा सारा संसार,
राम सिया की पावन जोड़ी, पुलकित मन हर्षित घर बार।
देख देखकर राम सिया को,राजा दशरथ मन में हर्षाए,
देख स्नेह से बारी बारी, स्नेह रस दोनों पर लुटाएं।
राम बनेंगे अयोध्या के राजा, चारों तरफ़ फैली यह धुम,
झूमे अयोध्या के नर नारी, दसों दिशाओं में फैली गुंज।
हाय कैसा विकट समय आया,नियती ने क्या खेल रचाया,
जिस राम को था राजा बनना, अगले पल उसे बनवासी बनाया।
छोड़ महल के सुख सारे, सिया सुकुमारी पिया संग चली,
शोक में डूबी अयोध्या नगरी,सारी प्रजा आंसुओ में डुबी।
चौदह वर्ष वनों में बिताकर,तब प्रभु राम अयोध्या आए,
पिता को खोकर, सिया को खोकर,कब, कहां, कौन सुख पाए।
महलों में भी आकर संग ना रह पाई सिया सुकुमारी,
एक लांछन से त्याग दिया सब,रही अटल जनक दुलारी।
बाल्मीकि ऋषि के आश्रम में, जन्म दिया दो पुत्र लव कुश,
वीरता और नैतिकता का पाठ पढ़ाकर, बाल्मीकि ने ज्ञान दिया सबकुछ।
फिर से एकबार कालचक्र ने ऐसा समय दिखाया,
जनक दुलारी और लव कुश को प्रभु राम के सम्मुख ले आया।
पर हाय रे,विधी का लेख कोई भी समझ ना पाया,
राम को सिया से, सिया को राम से कहां फिर से मिलाया।
जनक दुलारी, राजनंदिनी, सीता से फिर सीते कहलाई,
महलों में जन्मी महलों की रानी, महलों को त्याग वनवासी कहलाई।
धरती मां में गई समायी, माता सीता भूमिजा कहलाई,
धरती से जन्मी धरती को लौटी, ना महलों का सुख, ना पति सुख, ना पुत्र प्रेम हीं पाईं।