जज़्बात-ए-कलम
मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,
मैं किसानों के माथे का पसीना हूँ जो ,
बेशकीमती होकर भी बेकदर है,
मैं दीवाल की वो ईंट हूँ जो सोचता है ,
कि सारा बुनियाद उस पर है,
मैं बूढ़ी माँ की ज़रूरतों की फेहरिस्त हूँ,
जिसे दफ़्तर जाते हुए बेटे ने टाला हो,
मैं ख्वाहिशों से भरी पुरानी सन्दूक हूँ,
जिस पर जरूरतों, जिम्मेदारियों का ताला हो,
मैं मुस्कुराहट के मुखौटे में छिपा ग़म हूँ,
मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,
मैं एक पिता के फ़टे कमीज़ की तुरपाई हूँ,
जो बच्चों की ख्वाहिशों के लिए खुल रही हो,
मैं समाज से नुची किसी अबला की आबरू हूँ,
जो भरे बाज़ार चन्द रुपयों में तूल रही हो,
जिसे न्याय के लिए कभी खोले नही गये ,
मैं लोकतंत्र की दीमक चढ़ती वो किताब हूँ,
पैरों में पाज़ेब की तरह बंधी पाबन्दियां जिनकी,
मैं हर नारी के सिर का घूँघट हूँ, हिजाब हूँ,
मैं स्याह पीकर लेता पुनर्जनम हूँ,
मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,
मर्द जात के मुखौटे के नीचे दबी हर लड़के की
मैं चीख़ हूँ चिल्लाहट हूँ, मन का ग़ुबार हूँ,
सही पते की तलाश में दर-ब-दर भटकती,
मैं प्रेमिका की नाम की लावारिश तार हूँ,
घरवालों के डर से जो खनक भी न पाई,
माशूक को आशिक़ का तोहफ़ा हूँ,
जिम्मेदारी,ख़्वाब,इश्क़,रिवाजें,
मैं जवानी का वो रास्ता चौतरफ़ा हूँ,
हर हालात पर,हर्फ़ लिखता बे-हया,बेशरम हूँ,
मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ,मैं जज़्बात-ए-कलम हूँ।