जंतर लिए
बैठे हैं उधर वो हाथ में जंतर लिए।
आ रहे हैं इधर वो फिर हाथ में मन्तर लिए।।
अग़र की जलती प्यालियाँ हैं भीतर रखी सजी
बाहर हैं भिखारी बने ,भरे हुए कनस्तर लिए।।
जिश्म पे अल्फी सजी है गाल फूल गप्पे हुए
घूम रहे हाथ में हैं ,दो धार का नश्तर लिए।।
पाक़ हैं सलुकदार काम कोई छोड़ा नहीं है
मुल्क से ताल्लुक पुराना घूमते पत्थर लिए।।
किस शख्श का रूप ले ,हाथ में यों नाज रख
दौड़ते नजर आ रहे ,आँख पे पलस्तर किये।।
ढक लिया है जिश्म अपना चोला ये रंगीन कर
फायदा क्या दे दिया, घूमता है अक्षर लिए ।।
मामला क्या है साहब ये पल्ले कुछ पड़ता नहीं
हम तो बैठे देखते हैं इस्तथी एक बदतर लिए ।।