जंगल मत कहो-
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इसे जंगल मत कहो।
यह मेरा घर है।
मृत्यु-तुल्य मत कहो
मेरे जीने के तरीके को।
यह मेरे जीवन का सफर है।
शामिल हूँ जीवन की शृंखला में
भोजन की तरह सही।
हथियारों से रहित
हो तो तुम भी भोजन ही।
हमारे भूख में भोजन सर्वोपरि है।
तुम्हारे भोजन में असंख्य भूख है।
सारे संस्कार जन्म के निभाते हैं हम।
सारी शिक्षा जीवन के पढ़ाते हैं हम।
हमारा धर्म अधार्मिक नहीं है।
तुम्हारे धर्म सा अमार्मिक नहीं है।
तिनके तोड़,चुनकर; धरती खोदकर या
गुफाओं,कन्दराओं,खोहों में लेकर शरण
बनाते हैं उसे सपनों के घर हम।
इसे जंगल मत कहो।
यहाँ बिछाते,ओढ़ते,खाते-पीते
देखो यह सुंदर शजर, हम।
तुम्हारी सभ्यता असभ्य बहुत है।
इसमें घृणा असामान्य व अद्भुद है।
भोग के निकृष्ट संस्करण से
आत्मा है चुपड़ी हुई।
मानवीय होने का दम भरती है
किन्तु,है सिकुड़ी हुई।
ये झाड़-झंखाड़,नदी,नाले,झरने,झील,पर्वत,टीले
लंबे घास से भरे मैदान,पीले हरे पत्ते,
जीवन जी चुके सूखे दरख्त
फूल और काँटे से छनकर आती सूर्य की रश्मियां,
शनै: शनै: होता हुआ अनवरत परिवर्तन,
हर संज्ञा का पुनर्स्थापन।
इसे जंगल मत कहो और
मुझे जंगली।
कुछ तो है तुम्हारे जैसा।
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