जंगल जंगल जाकर हमने
जंगल जंगल जाकर हमने
पत्ता पत्ता छू कर देखा
उम्मीदें खिल सकें कि इतना
पानी अब भी बचा हुआ है!
कटुता की अनगिन आवाज़ें
कितने ही पहरे बैठा लें
कोयल का स्वर कभी मधुरता-
का बैरी हो सकता है क्या
चाहे पृथ्वी के हर कोने
को ग्रस ले अंँधियारा जग का
किंतु दिये का स्वाभिमान उन
रातों में खो सकता है क्या
चटक चटक स्वर मौन मगर हर
कथा टूटती रहती मन की
किंतु हृदय के किसी पटल पर
महाकाव्य भी रचा हुआ है
जंगल जंगल जाकर हमने…..।
रोते हुए ठिठुरते बालक
चौराहों की शोभाएंँ हैं
किन अपराधों के प्रति फल में
दुग्धहीन शापित माएंँ हैं
उड़ने में पीड़ा तो होगी
हंस! तुम्हारे पर घायल हैं
अंबर तक फैली है जड़ता
कारागृह में मेधाएंँ हैं
रोको रोको रथ, गीता की
तान सुनाओ मुरलीवाले!
सिंहासन के आकर्षण से
अभी धनंजय बचा हुआ है
जंगल जंगल जाकर हमने……।
-आकाश अगम