छोड़ दो
छोड़ दो
जिस बहस का अंत ही ना हो
उस बहस का रुख़ मोड़ दो
जब कोई तुम्हारी बात ही ना समझें
अपनी बात को बीच में ही तोड़ दो
जो पैसा घर का सुकून ले जाएं
ऐसा कमाना तुम
बच्चें न समझें तुम्हारे ही किए को
अपनी कहानी बताना छोड़ दो
जिस उम्मीद से सिर्फ़ निराशा ही मिलें
उस उम्मीद का दिया जलाना छोड़ दो
जो संगत छोटा करदे तुम्हारे कद को
उस गली का रुख़ मोड़ दो
सही साबित करके क्या मिलेगा
गेरों को हरा कर क्या जीत लेगा
ये जिंदगी हैं जनाब……..
इसे अदालत बनाना छोड़ दो
जिंदगी सब कुछ जान लेने में नहीं
बहुत कुछ अनदेखा करने में भी हैं
सब कुछ परफेक्शन में ही नहीं
बहुत कुछ अफेक्शन में भी हैं
दीपाली कालरा