छुटकी
वैशाख की दुपहरी का चढ़ता सूरज नभ शिखर को छूने को आतुर था, यद्यपि वृद्ध नीम के पेड़ों का जोड़ा, गदराया शीशम का दरख़्त और वैभव से झुका हुआ शहतूत उस खुले आँगन को छत और शीतलता प्रदान किए हुए थे। दर्जन भर बाल बालिकाएं अपनी अपनी पसंदीदा परियोजनाओं में चित को केंद्रित कर आँगन को विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभाजित किए हुए थे । वहीं छुटकी ने अपने दोस्तों के साथ उम्रदराज नीम के खोखले तने को घर बना अपने प्रिय खेल के पात्र माता, पिता, भाई, बहन सबकी भूमिका निर्धारित कर, घर-घर खेलना शुरू किया ही था कि राजेश ने उसे पुकारा, ‘छुटकी माँ बापू घर आ गए हैं तुम्हें बुला रहे हैं चलो जल्दी घर चलो।
माँ पशुओं का चारा लेकर खेतों से लौटी थी और पिताजी दूसरी तरफ के खेतों में बाड़ी लगाने के लिए हलाई कर लौटे थे। वैसे तो यह दिनचर्या हर रोज की होती थी। माँ दोपहर से पहले घर लौट आती और खाना बनाने में लग जाती पिताजी थोड़ा देर से आते तब तक खाना बन चुका होता और फिर सब साथ बैठकर खाना खाते ।परंतु आज समय के साथ साथ कार्यविधि में भी कुछ बदलाव दिखाई दे रहा था।
छुटकी की बड़ी बहन बाला जो इस साल कक्षा आठ उत्तीर्ण कर बाल अवस्था से जवानी की तरफ कदम बढ़ा रही थी। अतः आज कुछ खास मेहमानों को न्योता दिया गया था, बाला के रिश्ते के लिए। दोपहर के भोजन के वक्त तक मेहमान घर आ जाएंगे उसी के अनुसार थोड़ी बहुत तैयारियां भी चल रही थी। छुटकी बेशक छैः साल की बच्ची धी पर सुंदर तो उसे भी दिखना था। वैसे भी जो मेहमान आने वाले थे वो मेहमान कम बल्कि सुंदरता, संस्कार और संसाधनों का निरीक्षण करने वाले अधिक थे। छुटकी घर पहुंची ही थी की माँ की आवाज सुनाई दी, ‘जल्दी से हाथ मुंह धो लो और संदूक पर नए कपड़े रखे हैं वो पहन लो, मेहमान आने वाले हैं।’ छुटकी ने देखा आज सभी उजले कपड़े पहने हुए हैं और बाला बहन तो खास तौर पर कुछ सजी-धजी सी अलग ही लग रही है। छुटकी ने हाथ मुंह धोए और बाला ने उसे नए कपड़े पहना दिए। माँ रसोई में व्यंजन बनाने में व्यस्त थी। छुटकी माँ के पास गई और पूछने लगी माँ आज क्या है? कौन सा त्यौहार है? कौन आने वाला है? इतनी सारी खाने की चीजें और सब ने अच्छे-अच्छे कपड़े पहने भी है? माँ ने मुस्कुरा कर कहा आज तुम्हारी दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। देखने वाले क्यों ? छुटकी ने बाल जिज्ञासा से पूछा। तुम्हारी दीदी की शादी जो करनी है इसलिए। माँ ने लाड करते हुए जवाब दिया। शादी के बाद जिस परिवार में हो जाएगी उसी परिवार के लोग आ रहे हैं उसे देखने और पसंद करने के लिए। ‘तो क्या वो दीदी को अपने साथ ले जाएंगे?’ छुटकी अपने सवालों की झड़ी लगाए जा रही थी और उसकी माँ उल्लास पूर्वक जवाब दिए जा रही थी। ‘हाँ, परंतु अभी नहीं शादी के बाद’। माँ ने फिर मुस्कुरा कर जवाब दिया। छुटकी ने खुश होकर कहा ‘तब तो ढेर सारी मिठाइयां भी बनेंगे हमारे घर’। माँ ने छुटकी का गाल पकड़ कर कहा हाँ, और तुम्हारी शादी में उससे भी ज्यादा मिठाइयां बनेगी। मिठाइयों के नाम पर खुश होकर छुटकी बाकी सब भूल गई।
मेहमान आए, बातचीत हुई. देखरेख भी हुई और रिश्ता भी पक्का हो गया। मेहमानों की विदाई का समय हुआ, मान सम्मान चल रहा था की एक अधेड़ उम्र के अभ्य़ागत सज्जन ने अपनी बात बीच में रखते हुए बाला के पिता से कहा, चौधरी साहब अब तो रिश्तेदारी हो गई है मेरे जेहन में एक बात है अगर आपको उचित लगे तो…, बोलते बोलते मेहमान रूक गया। बाला के पिताजी बोले, जी फरमाइए चौधरी साहब। मेहमान ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, क्यों ना आपकी छोटी बेटी को भी हम अपने छोटे लड़के के लिए रोक ले, हमारी तो यही इच्छा है। कुछ समय बाद रिश्ता तो करना ही है। एक खर्च में दूसरा खर्च भी निकल जाएगा। हमारी और तो कोई ऐसी मांग है नहीं। ना हीं हमें दहेज चाहिए। जैसी आपकी फुर्सत हो वैसे कपड़े पहना कर दोनों बेटियों को विदा कर देना। बाला के पिता ने अपने मन की शंका जाहिर करते हुए कहा, चौधरी साहब बात तो आपकी बहुत नेक और विचारणीय है, परंतु छुटकी तो अभी मात्र छै साल की है. बिल्कुल बच्ची है। मेहमान ने प्रत्युत्तर दिया, हमारा लड़का भी अभी दस बारह साल का बालक ही तो है। बड़े बच्चों के साथ एक बार शादी कर देते हैं उसके बाद उचित समय आने पर गौना कर देना। तब तक बच्चे सामर्थ भी हो जाएंगे’।
बाला के पिता को बात कुछ सूचित लगी और दोनों बेटियों का रिश्ता पक्का हो गया। कुछ दिन बाद शादी का दिन तय हुआ और शादी भी हो गई। शादी के बाद जब बाला और छुटकी ससुराल से वापस अपने घर आए तो बाला को तुरंत मुकलावा कर ससुराल भेज दिय़ा और छुटकी को मायके में उसके अपने घर पर रख लिया। अब बाला ससुराल में अपनी गृहस्थी संभाल रही थी और छुटकी फिर से अपने दोस्तों के साथ उस नीम के पेड़ के नीचे अपने प्रिय खेल में मगन थी। मिट्टी से घर बनाना, घर को सजाना, घर के सभी पात्र निर्धारित करना उनको उनकी भूमिका बताना वगैरा-वगैरा।
वक्त अपनी रफ्तार पकड़े चलता रहा और एक दिन अचानक छुटकी की ससुराल से संदेशा आया। छुटकी के गौने की तैयारी करने का। दिन भी मुकर्रर हो गया और बारह साल की छूटकी अपनी बहन के पास अपनी ससुराल पहुंच गई। यहाँ उसकी बहन के दो नन्हे मुन्ने बच्चे सुमन और सौरव जो उसका मनोरंजन भी थे और जिम्मेदारी भी ।कब साल बीत गया पता नहीं चला। साथ ही छुटकी के शारीरिक बदलाव के साथ साथ उसके व्यवहारिक बदलाव ने भी अपनी उपस्थिति का आभास उसे करा दिया था। फलस्वरूप छुटकी गर्भवती हो गई और कुछ ही दिनों बाद एक और छुटकी, छुटकी की गोद में थी। कल तक जिसे खेल समझ पात्रों की भूमिका निर्धारित करती थी। आज उसके सामने वह पूरा घर साक्षात था। सारे पात्र भी थे और छुटकी इसकी मुख्य ग्रहणी के रूप में सभी पात्रों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में लगी थी। अब ना वह नीम का पेड़ था, ना ही वो आँगन और ना ही वह कायदा और तख्ती। कभी ससुर की खरखरी, कभी सास की आवाज. कभी पति की जरूरतें तो कभी बेटी के रोने और खिलखिलाने की आवाज। बस यही उसका दायरा था और यही उसका संसार। य़े छुटकी के जन्म की चौदहवीं वर्षगांठ थी। परंतु आज भगवान से की गई उसकी प्रार्थना में ना खिलौने थे, ना चॉकलेट. ना मिठाइयां और ना ही दोस्तों के साथ मस्ती के ख्वाब। आज उसकी प्रार्थना में बस उसकी अपनी छुटकी के उज्जवल भविष्य की कामना थी, और घर में सुख शांति और समृद्धि बनी रहे, इतनी सी विनती थी।
मैं छुटकी से लगभग दो साल छोटा हूं। परंतु हमेशा उसे छुटकी ही बुलाता था। उधर छुटकी अपनी ससुराल चली गई और मैं नवोद्य विद्यालय के हॉस्टल में। एक चंचल और दूसरा शरारती तत्व, गली और आँगन दोनों ही दोनों की कमी बखूबी महसूस कर रहे थे। दशक बीत गया था। मैं अपनी पढ़ाई में लगा हुआ था और छुटकी गृहस्थी में। मैंने विज्ञान विषय से 12वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की, फिर इंजीनियरिंग पूरी कर साल भर नौकरी की तलाश में लगा रहा। इन 12 वर्षों में कोई दिन ऐसा नहीं आया जिस दिन उस आँगन ने हम दोनों को एक साथ पाया हो। मैने एक कॉर्पोरेट हाउस की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में नौकरी प्राप्त की। जॉइनिंग लीव लेकर घर आया तो सब कुछ बदला चुका था। अब तो वो आँगन भी सिकुड़ गया था और गाली भी संकरी हो चुकी थी। बचपन की वह छायादार पेड़ों की छत अपना अस्तित्व खो चुकी थी और उनकी जगह अब सीमेंट की पक्की छतें ले चुकी थी।
दो साल दूसरे प्रांत में नौकरी करने के बाद सौभाग्य से मुझे अपने जिले में चल रहे पावर प्लांट के प्रोजेक्ट में तबादला मिल गया। अतः मेरा घर आना-जाना निरंतर होने लगा। साल के अंत में मेरी कुछ छुट्टियां बची थी। खराब ना हों अतः छुट्टियां लेकर मैं घर पर ही था की एक दिन अचानक छुटकी से मुलाकात हुई। अरे छुटकी तुम ! कैसी हो ? कब आई और तुम्हारी ससुराल में सब कैसे हैं ? बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है ? मैने सारे सवाल एक ही वाक्य में पूरे कर दिए। हाँ मैं ठीक हूँ, ससुराल में भी सब ठीक है। दिव्या की शादी तय कर दी है, तो भात का न्योता देने आज ही आई हूँ। छुटकी ने सपाट जवाब दिया जैसे उसकी गाड़ी छूटने वाली हो। मैंने सवाल लिया लहजे में पूछा, दिव्या? छुटकी ने जवाब दिया, दिव्या मेरी बेटी है। छुटकी की छुटकी का नाम दिव्या रखा गया था। इतनी बड़ी हो गई है क्या वह? पता ही नहीं चला। मैंने आश्चर्य से पूछा। छुटकी कहने लगी, लड़कियों को जवान होने में वक्त कहाँ लगता है भाई। क्या कर रही है वह, मेरा मतलब उसकी पढ़ाई ? मुझे दिव्या के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। इस साल दसवीं कक्षा की परीक्षा देगी, छुटकी ने गर्व का भाव प्रकट करते हुए कहा और फिर चलते हुए बोली आज थोड़ा जल्दी में हूँ फिर मिलूँगी। मैं असुध, स्तब्ध सा खड़ा छुटकी और छुटकी की छुटकी, यानी दिव्या के विचारों में उलझा रह गया। फिर कुछ हिसाब लगाने लगा। अपनी उम्र के हिसाब से छुटकी और दिव्या की उम्र का। मैं 26 पूरा का था। तो छुटकी लगभग 28 की और उसकी बेटी 14 या अधिक से अधिक 15 साल की। मैं सकते में था और बाहर नहीं आ पा रहा था। आता भी कैसे, 26 का होने के बाद भी मैं शादी का विचार पक्का नहीं कर पा रहा था। जबकि मेरे बचपन के खेलों की साथी, सास बनने की तैयारी कर रही थी। कभी दिव्या के भविष्य के बारे में विचार करता, तो कभी उसकी अधूरी छुटी शिक्षा के बारे में। इसी विचार में डूबे. अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ एक-एक कर इसकी चर्चा करता रहा। अब मेरी छुट्टियां खत्म हो चली थी। छुटकी तो शायद अगले दिन ही अपने ससुराल चली गई थी। अब मुझे अपने काम पर वापस लौटना था।
अपने कार्य की व्यस्तता में वह सारी बातें धूमिल हो गई थी। कुछ दिनों बाद मेरा तबादला भी दूसरे प्रांत में चल रहे प्रोजेक्ट में हो गया था। दो साल और बीत गए, अब मेरी शादी की तैयारियां चल रही थी। मैं लंबी छुट्टी लेकर घर आया था। लगुन के दिन गीतों के लिए मोहल्ले की सभी औरतों को न्योता दिया गया था। साँझ के ढलते ही एक-एक कर सभी औरतें जमा होने लगी। माँ अपनी तैयारियों में व्यस्त थी। तभी घर के बाहर से कुछ और तो ने माँ को पुकारा। मैंने दरवाजे पर जाकर देखा और सत्कार के साथ उन सब का स्वागत किया। अचानक मेरी नजर छुटकी पर पड़ी। अरे छुटकी तुम भी आई हो? आओ अंदर आओ मैंने शालीनता से छुटकी के साथ सब को आमंत्रित किया। अंदर आते आते छुटकी ने अपनी बेटी से मेरा परिचय करवाया। यह दिव्या है। मैंने दिव्या को उत्सुकता से देखा। वह नाजुक सी, कच्ची उम्र की नादान सी बच्ची और उसकी गोद में नवजात शिशु। मैं देख कर हैरान भी था और परेशान भी। सभी औरतें अंदर आंगन में चली गई। छुटकी को मैंने वही बरामदे में बड़ी कुर्सी की तरफ इशारा कर बैठने को कहा। लंबे समय के बाद मिले थे तो वह भी अपनी जिज्ञासा वस वहीं बैठ गयी। फिर छुटकी और छुटकी की छुटकी को लेकर जो सवाल और विचारों का सैलाब मेरे जहन में था वह बाहर निकलने लगा। दर्जनों सवाल एक साथ छुटकी के सामने रख दिए। छुटकी के पास मेरे सवालों के जवाब तो नहीं थे, पर उसने अपनी स्थिति और विवशता को खोलकर मेरे सामने रख दिया। बात करते-करते रात चढ़ चुकी थी। संगीत खत्म होने वाला था। छुटकी उठकर महिला मंडली में शामिल हो गई और मैं अपने कमरे में चला गया। सोने का प्रयास कर रहा था। मगर नींद कहीं आसपास भी नहीं थी। बस छुटकी की छुटकी और न जाने कितनी ही ऐसी छुटकीयों की तस्वीरें मेरे मस्तिष्क पटल पर घूमती रही। रात भर बेचैनी में करवटें बदलता रहा। अगले दिन सुबह उठते ही है मैं छुटकी के घर गया । छुटकी को समझाया । देखो छुटकी तुम्हारी तो जैसे तैसे कट रही है । जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ा हुआ है । पर दिव्या के सामने अभी बहुत लंबी जिंदगी पड़ी है । वह माँ तो बन गई है। पर है तो अभी कच्ची उम्र की बच्ची ही। मेरी बात मानो, बच्चे की देखरेख तुम करो और दिव्या की पढ़ाई फिर से शुरू करवा दो । बच्चों की परवरिश करने की सही उम्र तुम्हारी है। दिव्या की अभी पढ़ने-लिखने की उम्र है। जो उसे करना भी चाहिए । मेहनत का फल भगवान भी जरूर देते हैं । पढ़ाई के बाद भगवान ने चाहा तो कोई नौकरी भी मिल जाएगी । छुटकी फिर अपनी विडंबना बताने लगी। भाई मेरी चले तो मैं ऐसा करवा भी दूँ । पर अब यह घरबार की हो चुकी है। इस के ससुराल वाले क्या चाहते हैं, होगा तो वही। मैं अगर अपने पास रखकर भी करवाना चाहूँ तो इसके बाबा क्या सोचते हैं वह महत्वपूर्ण है । वह मुझे इसकी कभी इज़ाजत नहीं देंगे । मैंने स्थिति को जाँच कर सबसे पहले दिव्या से जानना उचित समझा । दिव्या तुम क्या चाहती हो ? पढ़ना चाहती हो ? देखो तुम्हारे वर्तमान पर तुम्हारे बच्चों का भविष्य निर्भर करता है । सोच कर बताना । दिव्या तो तैयार ही थी । मामा मैं तो तैयार हूँ और चाहती भी हूँ अपनी पढ़ाई पूरी करके किसी नौकरी की तैयारी करूँ। पर अब तो टिकु (दिव्या का बेटा) भी है इसकी देखरेख के चलते मुझे कौन पढ़ने का अवसर देगा। दिव्या ने अपना विचार स्पष्टता रखा । अब मुझे दिव्या के पति और उसके ससुराल के बारे में जानना था। मैंने दिव्या से पूछा तुम्हारे पति क्या करते हैं? जी वह B.Ed कर रहे हैं। दिव्या ने बताया। और तुम्हारे सास ससुर? मैंने फिर पूछा। खेती करते हैं उसी से घर और सुरेश (टिक्कू के पिता) की पढ़ाई का खर्च चलता है। दिव्या ने अपने ससुराल की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा। मतलब साफ था। दिव्या के सास ससुर की सहमति पाना आसान नहीं था। तो मैंने सुरेश से अकेले में बात करने का विचार बनाया।
क्योंकि मेरे पास भी वक्त कम था। लगुन आ चुका था और दो दिन बाद हल्दी चढनी थी। हल्दी के बाद कहीं जाने की इजाजत नहीं मिलेगी, यह मैं जानता था। अतः मुझे आज ही सुरेश से मिलना था। मैंने दिव्या से सुरेश के कॉलेज का पता लिया और उससे सुरेश को फोन कर कॉलेज में मुझसे मिलने का संदेश देने को कहा। मैं घर आकर फटाफट तैयार हुआ और बाजार में कुछ काम है कह कर तुरंत ही सुरेश से मिलने निकल गया। सुरेश पढ़ा लिखा था तो उससे मुझे उम्मीद थी। शायद वह मेरी बात समझ सके। कॉलेज पहुँचा और सुरेश से मुलाकात की। पहले औपचारिकता से घर परिवार की व्यवहारिक बातें की और फिर मैंने उसको मिलने का मकसद बताया। मेरी बात सुन सुरेश थोड़ा हिचकिचाया और कहने लगा यह संभव तो नहीं लगता है। फिर मैंने उसे उनके और उनके बच्चों के भविष्य के बारे में समझाया। शिक्षा का महत्व बताया। साथ ही यह भी समझाया कि आज के जमाने में एक व्यक्ति की मेहनत और कमाई पर्याप्त नहीं है। दिव्या पढ़ लिख लेगी तो कम से कम बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाएगी। घर पर बच्चों को पढ़ा पाएगी। और कुछ नहीं तो ट्यूशन का खर्च बचेगा। बारहवीं कक्षा के आधार पर कई तरह की नियुक्ति होती है। कई तरह के कोर्स भी होते हैं। जो 1 से 2 साल के होते हैं। कम से कम 12वीं कक्षा उत्तीर्ण कर ले तो फिर जे,बी,टी. नर्सिंग तथा बैंक कलर्क जैसे कई तरह के अवसर मिल सकते हैं । आप खुद B.Ed कर रहे हैं अतःअध्यापक बनने का इरादा है। दिव्या को जेबीटी का कोर्स करवा सकते हैं। जेबीटी अध्यापक पर ज्यादा भार भी नहीं होता है। दूसरा फायदा यह भी हो सकता है कि आपके स्कूल में ही या आस पास के किसी स्कूल में पोस्टिंग मिल जाए। सुरेश को मेरी बात और उसके फायदे बखूबी समझ में आ गये थे। पर उसके मन में एक डर अभी भी था। उसने कहा यह तो ठीक है। मैं भी समझता हूं। परन्तु मैं खुद बेरोजगार हूँ, ऊपर से मेरी पढ़ाई का खर्च भी मेरे मां बाप पर है। उनकी सहमति नामुमकिन सी है। चलो मैं प्रयास भी करूं तो हमारा बच्चा भी है। उसकी देखरेख कौन करेगा। सुरेश का यह सवाल संभावित था। अतः मैं इसका जवाब तैयार करके ही उससे मिलने गया था। मैंने सुरेश से कहा आप अपने माता पिता को समझाओ कि मेरी पढ़ाई चल रही है तब तक दिव्या को उसके मायके में रहने की इजाजत दे दी जाए। दिव्या का दाखिला में अपने गांव के स्कूल में उच्च माध्यमिक विद्यालय में करवा दूंगा। कक्षा 12 तक वहां पर पड़ेगी। भगवान ने चाहा तो फिर किसी कोर्स में दाखिला भी मिल जाएगा। जेबीटी की तैयारी करेगी आसपास के किसी कॉलेज में जेबीटी में दाखिला करवा देंगे। मेहनत करने वालों का साथ भगवान भी देते हैं। सब कुछ अच्छा ही होगा। उसके बाद आपको जो उचित लगे आप देख लेना। भगवान की कृपा और आपकी मेहनत से तब तक आपकी नौकरी भी लग जाएगी। आप अपने पैरों पर होंगे तो निर्णय भी ले सकेंगे। रही बात आपके बच्चे की तो तब तक उसकी परवरिश दिव्या की माताजी करेगी। जेबीटी या दूसरा कोई कोर्स हो जाने के बाद आपके मां-बाप को भी दिव्या की नौकरी की उम्मीद हो जाएगी। जिससे अगर उनका कोई गिला शिकवा होगा वह भी स्वत: ही दूर हो जाएगा। अभी दाखिले चल ही रहे हैं। मैं चाहता हूँ बिना वक्त गवाएँ दिव्या का 11वीं कक्षा में दाखिला करवा दिया जाए। आप विचार कर जो उचित लगे बता दो। आप ही हो जो दिव्या की अधूरी शिक्षा को पूरा करने में उसे सहयोग कर सकते हो। उसका सबसे ज्यादा फायदा भी आपको ही होगा। आप कहो तो मैं कल ही उसका दाखिला करवा दूँगा। सरकारी स्कूल में खर्च कुछ है नहीं। लड़कियो को स्कूल यूनिफार्मव, किताबें सब सरकार मुहैया कराती ही है। अभी दिव्या मायके में ही है आपको अपने माता-पिता से बात करने का वक्त भी मिल जाएगा। उचित समय देख आप अपनी पढ़ाई का बहाना बनाकर कुछ समय और निकाल देना। अभी आपके पास भी रोजगार नहीं है। आप दोनों की उम्र भी बहुत कम है। वैसे भी जिंदगी भर ग्रहस्ति में ही उलझे रहना है। क्या पता इन तीन चार सालों का थोड़ा सा कष्ट आगे की जिंदगी को सरल कर दें।
सुरेश शिक्षित होने के साथ-साथ सुलझा हुआ भी था और समझ बूझ भी रखता था। उसने तुरंत ही कहा आप जो उचित समझें आप देख लीजिए। कुछ समय तो निकल ही जाएगा। बाद में कुछ होगा तो देखा जाएगा। बीच-बीच में जैसे-जैसे मुझे अवसर मिलेगा संभालता रहूँगा।
मन में एक अलग तरह की खुशी और उत्सुकता थी। मैं घर आया और शाम को छुटकी और दिव्या से मिला। छुटकी को टिंकू की जिम्मेदारी दी और दिव्या को दाखिले के लिए तैयार रहने को कहा। अगले दिन ही दिव्या का अपने ही गांव के स्कूल में दाखिला करवा दिया। दिव्या के नाना नानी और मामा राजेश को अच्छे से समझा दिया कि लोगों की बातों में ना आएँ और अपनी बच्ची (दिव्या) का और उसकी पढ़ाई का ख्याल रखें। मैं अपनी शादी के बाद शहर वापस आ गया जहाँ मेरी पोस्टिंग थी। कुछ दिन बाद छुटकी टिकु को लेकर अपने घर चली गई। दिव्या की पढ़ाई फिर से चल पड़ी थी। मैं जब भी घर आता, दिव्या अक्सर मिलने आती थी। कभी पढ़ाई को लेकर कुछ पूछती तो कभी आगे और क्या कर सकती है यह जानने की कोशिश करती है। दिव्या ने 12वीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। जेबीटी में दाखिला भी प्राप्त कर लिया। उधर सुरेश एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापक की नौकरी करने लगा था। तीन साल बीत चुके थे दिव्या का जेबीटी का कोर्स भी पूरा होने वाला था। अब स्थिति बाहर से बहुत साधारण दिखती थी। पर अंदरूनी तौर पर उलझी हुई थी। दिव्या मेरे घर आने का इंतजार करने लगी। अक्सर घर आकर मेरी माँ से पूछती रहती नानी, मामा कब आएंगे। माँ ने एक दो बार पूछा भी कि क्या कोई खास वजह है। तो वह बहाना बना देती। नहीं बस ऐसे ही। कभी कह देती मेरी जेबीटी पूरे होने वाली है, अब क्या करना चाहिए पूछना चाहती थी बस।
इस बार जब मैं घर आया तो दिव्या तुरंत ही मेरे घर पहुंच गई। मैं घर से नाश्ता पानी कर अपने एक मित्र के पास कुछ काम से चला गया था। अब मेरे पास भी एक बेटी है जाह्नवि । दिव्या जाह्नवि से कुछ देर लाड प्यार कर वापस चली गई। लेकिन ताक में थी कि कब मैं घर वापस लौटूं और वह मुझसे मिले। मुझे घर पहुंचने में रात हो गई। सुबह उठते ही दिव्या मेरे घर आ गई। मैं भी बस उठा ही था। मामा नमस्ते दिव्या ने सामने से बड़े सत्कार से कहा।
अरे दिव्या! नमस्ते, कैसी हो? तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? मैं अचानक सुबह सुबह सुबह दिव्या को सामने देख थोड़ा चकित था? वह कुछ बोलती उससे पहले ही मैंने पूछ लिया। क्या कर रही हो आजकल? मैं ठीक हूं मामा जेबीटी की है। अभी अभी फाइनल परीक्षा खत्म हुई है। लेकिन मामा अब क्या? दिव्या ने जवाब तो दिया साथ में एक सवाल भी खड़ा कर दिया। जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। मैं सवाल सुनकर थोड़ा सहम गया था। अब क्या मतलब? कोई परेशानी है? मैंने पूछा। दिव्या ने जवाब में कहा, कब तक और ऐसे..? और रुक गई। मैं उसकी एक परेशानी तो समझ सकता था। वह थी अपने बच्चे और पति को छोड़कर ननिहाल में इतना लंबा समय बिताना। पर जानना चाहता था कोई और तो परेशानी नहीं खड़ी हो गई है। तो मैंने पूछा अच्छा बताओ क्या परेशानी है और क्या चाहती हो। दिव्या मायूस थी। कहने लगी मेरे ससुराल में सब लोग सोचते हैं। हमारा रिश्ता अब खत्म हो गया है। सुरेश से बात करती हूँ। तो वह भी आजकल आजकल करते हैं। मुझे इसका अंदेशा पहले से था तो आश्चर्य नहीं हुआ। मैंने उसे दिलासा दी और चिंता ना करने को कहा। अगले दिन मैंने दिव्या से उसके ससुराल का पता लिया और वहाँ पहुँच गया। पहले सुरेश से उसके स्कूल में मिला और उससे बात कर पूरे माहौल को समझने की कोशिश की। यह भी जानने का प्रयास किया कि सुरेश क्या चाहता है। सुरेश से बात करने पर समझ में आया की परेशानी ज्यादा नहीं है। मुद्दा सिर्फ मान अभिमान का है। सुरेश तो तैयार था। परंतु उसके मां-बाप इस लंबे अंतराल की वजह से नाराज थे। और सुरेश पर दबाव बनाए हुए थे। कि इतने समय से वह नहीं आई है तो वजह क्या है। उनकी अपेक्षा दिव्या के पिता से भी थी। कि वह आए और अनुरोध करें, फिर सोचेंगे। यह जानने के बाद मैं सुरेश के साथ सुरेश के घर गया। सुरेश ने जैसे ही मेरा परिचय कराया कि मैं दिव्या के मामा के गांव से हूँ और नाते में मामा लगता हूँ। तो सबने नाराजगी जताते हुए मुंह फेर लिया। मैंने सुरेश के पिता जी से बातचीत करनी है शुरू की। हालचाल पूछा खेती-बाड़ी का पूछा। घर परिवार का पूछा। उन्होंने बङे बेरुखे मन कहां सब ठीक है। मुझे लगा कि व्यर्थ में समय गवाँने से कोई फायदा नहीं और मैं मुद्दे पर आ गया। मैंने उन्हें समझाया कि दिव्या अब जेबीटी का कोर्स कर चुकी है। यहाँ रहकर उसकी पढ़ाई संभव नहीं थी। आप लोगों पर वो और भार नहीं डालना चाहती थी। फिर घर के कामकाज में हाथ ना बटाती तो आप लोगों को और परेशानी होती। साथ में टिक्कू की देखरेख की बड़ी जिम्मेदारी भी थी। अब वह शिक्षित है जेबीटी का कोर्स कर चुकी है। जेबीटी मास्टर की नियुक्तियां भी निकलने वाली है। जब आपने सुरेश को इतना पढ़ाया है। वह भी शादी के बाद तक। तो आप शिक्षा का महत्व बखूबी समझते हैं। बेटे के साथ-साथ बहू भी अगर कामयाब हो जाए तो इससे अच्छी बात और क्या होगी। सुरेश के पिता मेरी बात सुनकर थोड़ा नरम पड़े। परंतु उनका अभिमान अभी अटका हुआ था। कहने लगे देखो इंजीनियर साहब आप आए आपका मान-सम्मान सिर माथे। परंतु आप तो दूर के हो यह बात दिव्या के पिता को करनी चाहिए थी। हम कोई अपने बच्चों के दुश्मन तो है नहीं। परंतु व्यवहार तो होना चाहिए कि नहीं। मैंने भाव को भाँपते हुए कहा. चौधरी साहब देखो मैं दिव्या का सगा मामा नहीं हूँ ये बात बिलकुल सही है। लेकिन सगे से कम भी नहीं। जो सब कुछ हुआ उसका जिम्मेदार भी मैं ही हूँ। मेरे कहने पर ही दिव्या, उसके माता-पिता और सुरेश ने मिलकर यह कदम उठाया था। बच्चे आपका मान करते हैं और संकोच में भी थे। तो स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाए। फिर भी अगर आपको लगता है कि दिव्या के पिता का ही आना जरूरी है। तो कोई बात नहीं, मैं कल ही उन्हे भेज देता हूँ। परंतु वो भी भोले इंसान है। उनको तो खुद नहीं पता कि कोई परेशानी है। उनकी नजर में तो अभी भी यही है कि यह सब दामाद की इच्छा से हुआ है और जब उन्हें लगेगा तो आकर दिव्या को अपने साथ ले जाएंगे। रही बात गांव में लोगों का मुंह बंद करने की, वह तो दिव्य के आने से वैसे ही बंद हो जाएगा। कल को जब वह मास्टरनी लग जाएगी तो आप की ही तारीफ होगी। सब यही कहेंगे की बेटे को तो पढ़ाया ही साथ में बहू को भी बढ़ाकर नौकरी लगवा दिया। दिव्या अभी अपने नाना नानी के पास है। मैं कल उसे उसके पिता के घर भिजवा दूंगा। आपको उचित लगे तो एक-दो दिन में सुरेश को भेजकर मंगवा लीजिएगा। इतने लंबे समय के बाद अकेले आने में दिव्या को संकोच हो रहा है। और शायद यह आपको भी अच्छा नहीं लगे। फिर भी अगर आपको लगे तो आज से चौथे दिन दिव्या के पिता आपसे मिलने आ जाएंगे। या अगर आप चाहें की वही दिव्या को छोड़कर जाएं, तो साथ भी लेते आएंगे। पर इसमें आपकी ही हल्की रहेगी। विचार कर लीजिएगा। जैसा भी हो फोन करवा दीजिएगा। जैसा आप चाहेंगे वैसा ही हो जाएगा। अब मैं इजाजत चाहूंगा, मुझे जो बात कहनी थी आपके सामने है। बाकी आप देख लीजिएगा। बच्चे आपके हैं और भविष्य उनका ही है।
मेरी बातों का कुछ तो असर था। कुछ बोले नहीं, मेरे चलने की प्रतिक्रिया में जरूर उन्होंने सम्मान पूर्वक कहा, इंजीनियर साहब ऐसे नहीं खाना खाकर जाइएगा, बस थोड़ी देर में खाना तैयार हो जाता है। नहीं चौधरी साहब अब आप मुझे इजाजत दीजिए घर पहुंचते काफी देर हो जाएगी। वैसे भी हमारी परंपरा लड़कियों के यहां इसकी इजाजत नहीं देती है। फिर कभी आएंगे आपके साथ तसल्ली से समय बिताएंगे। मैं कह कर उठा और अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गया। साथ हीवहउठ कर मेरे पीछे पीछे वहां तक आ गए।मैंने गाड़ी में बैठ कर राम राम की और गाड़ी स्टार्ट कर दी। उन्होंने राम-राम का जवाब देते हुए फिर कहा रुक जाते तो अच्छा था, कम से कम खाना तो खा कर ही जाते। फिर कभी बोलते हुए मैं निकल गया। अगले दिन दिव्या अपने बच्चे के पास जाने को तैयार थी कि सुरेश का फोन भी आ गया। उसने बताया कि वह कल उसे और उसके बच्चे को लेने के लिए आ रहा है।अब दिव्याकी परेशानी खत्म हो चुकी थी। दिव्या अपनी मां के पास चली गई। वहां से बच्चे के साथ अपनी ससुराल। मैं भी छुट्टी पूरी कर वापस अपनी ड्यूटी पर आ गया।
तीन साल बीत चुके थे। एक दिन अचानक एक नऐ नंबर से फोन आया। फोन रिसीव करने पर पता चला, फोन करने वाला सुरेश था। सुरेश ने खुश की खबर सुनाई और घर आने का न्योता दिया। साथ ही खुशखबरी भी सुनाई उसने बताया उसको एक लड़की हुई है और उसके कुआं पूजन का प्रोग्राम रखा है। जिसके लिए उसने मुझे बुलावा दिया था। दूसरी खुशखबरी ये थी कि अब सुरेश और दिव्या दोनों की सरकारी स्कूल में अध्यापक की नियुक्ति हो चुकी थी। यह सब जान कर अंतर्मन खुशी से झूम उठा। मैं दिव्या की ससुराल पहुंचा, तो देखा छुटकी की छुटकी की गोद में एक और छुटकी थी। जिसका आज कुआं पूजन था। गांव में एक नई परंपरा की शुरुआत हो रही थी। यह सब देख और जानकर दिल में बड़ा सकून और हर्षोल्लास था।
देवेन्द्र दहिया अम्बर
# स्वय़ं रचित