छिपती नहीं तमाम सदाक़त कभी कभी
छिपती नहीं तमाम सदाक़त कभी कभी
दिखती है बेलग़ाम हक़ीक़त कभी कभी
मुफ़लिस के घर का हाल बताता नहीं कोई
दीवार हैं फ़क़त न दिखे छत कभी कभी
जब चोट सी पड़े है अना पर भी हारकर
होती है खेल में भी शिकायत कभी कभी
झेले सदा हैं इश्क़ ने रस्मो-रिवाज़ सब
बदली नहीं जहाँ ने रवायत कभी कभी
हर वक़्त मुस्कुराते रहें बात कुछ भी हो
भारी पड़ी है ख़ुद को ये आदत कभी कभी
जब चाहता है रब तो बदलता है आदमी
आती है क़ातिलों में शराफ़त कभी कभी
बढ़कर मिले सबाब है इसका सदा सदा
कर लो जवान रह के इबादत कभी कभी
मासूम एक बैठा हुआ दिल में है मेरे
करता मेरा भी दिल है शरारत कभी कभी
‘आनन्द’ जानता है मुक़द्दर की बात है
होती है मुझपे उनकी इनायत कभी कभी
– डॉ आनन्द किशोर