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13 Jun 2023 · 1 min read

छप्पर की कुटिया बस मकान बन गई, बोल, चाल, भाषा की वही रवानी है

मेरी कलम से…
आनन्द कुमार

अपना गांव है, अपना जहान है,
अपनी माटी की, अलग ही पहचान है।
खेत है बाग है, पौधों की मुस्कान है,
सबसे अलग गंगा तीरे मोरा गांव है।
सुबह की बेला है, पक्षी अलबेला है,
फूल की खुशबू में अलग ही खेला है।
चाचा और चाची हैं, काका और काकी हैं,
मां की कोठरी की, लोरी सुहानी है,
पापा के डांट की यादें सुहानी है।
खेतों की पगडंडी की राह पुरानी है,
सोना उगलती धरती मस्तानी है।
बचपन के दोस्त जो गांव में ही रह गये,
उनके प्यार की अनमोल कहानी है।
सच में मेरा गांव, मंदिर से कम नहीं,
घर-घर में बैठे यहां अजब ही पुजारी हैं।
छप्पर की कुटिया बस मकान बन गई,
बोल, चाल, भाषा की वही रवानी है।

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