छत पर हम सोते
एक रात जब हम सोते थे,
छत पर अपनी आंखे मूंदे।
पत्थर सी लगती थी सर पर,
बारिश की वो गिरती बूंदें।
बिस्तर लेकर सरपट भागे,
घर में ढूंढें हम एक कोना।
रात अभी भी बाकी थी जो,
और अभी था हमको सोना।
आपाधापी में सब बिखरा,
ना तकिया मिला ना बिस्तर।
खाली जमीन पर लेट गए,
ये नींद मिले ना हमको फिर।
होश नहीं हम कँहा गए,
वो गद्दा था या गलीचे।
सुबह हमारी आँख खुली,
हम पड़े पलंग के नीचे।
पैर पकड़ कर मम्मी पापा,
फिर हमको बाहर खींचें।
नींद हमारी हवा हुई तब,
हम खड़े आँखों को मीचे।