चोरी के दोहे
चोरी के दोहे
चोरी की सापेक्षता, स्वारथ करती सिद्ध।
पल में मौसेरा बने, होने को परसिध्द।।
अपने अंतर में अगर, बैठा छिपकर चोर।
लात जोर से मारकर, कर देना कमजोर।।
मानदण्ड सबके अलग, कह दे किसको चोर?
अपने खातिर और है, उसके खातिर और।।
भिन्न भिन्न की भिन्नता, भिन्न भिन्न के चिन्ह।
बना चोर सिरमौर जहाँ, मन हो जाता खिन्न।।
बिना चोर उसको कहे, कैसे पाओ ठौर।
बतलाना ईमान तो, उसको कहना चोर।।
कविता चोरों की बढ़ी, आज बड़ी भरमार।
एक चाहिये ढूँढना, पाओ कई हजार।।