चीख उठी है स्वयं वेदना, देख क्रूरता के मंजर
चीख उठी है स्वयं वेदना, देख क्रूरता के मंजर ।
निष्ठुरता ने मानवता को, मार दिया खूनी ख़ंजर ।
गलियाँ-गलियाँ सुबक रही हैं, वादी-वादी दहशत है ।
सन्नाटों में कहीं चीखता, धरती का दिल आहत है ।
कैसा निर्मम कृत्य हुआ है, मानवता शर्मिंदा है ।
एक फूल को कुचला जिसने, वो हत्यारा जिंदा है ।
इस घटना पर मौसम रोया, रोये दरिया, पोखर भी ।
देर रात तक अम्बर रोया, रोया दूर समंदर भी ।
पत्थर के सीने भी रोये, रोये नर्म सलोने भी ।
घर की छत, दालान, कोठरी, रोये कोने-कोने भी ।
माँ की आंखों के सागर ने, बाँध सब्र के तोड़ दिए ।
और हृदय के तटबंधों ने, लाखों दरिया मोड़ दिए ।
फूट-फूट कर एक पिता का, संयम रोया आंखों से ।
सिसकी भर-भर अहसासों का, मौसम रोया आंखों से ।
जिन हांथो ने नन्हे बचपन, को प्यारी किलकारी दी ।
एक कली को खुलकर खिलने, की पूरी तैयारी दी ।
जिस बेटे की जिद के आगे, सारा घर झुक जाता था ।
और समय का पहिया जिसकी, बोली से रुक जाता था ।
एक जरा सी सिसकी से ही, कई हृदय फट जाते थे ।
जिसकी आंखों के आंसू भी, बहने से कतराते थे ।
जिसकी बातें गीता जैसी, कभी कुरान सरीखी थीं ।
और बोलियाँ पूजा भी थीं, और अजान सरीखी थीं ।
जिसने घर आँगन को प्यारी-प्यारी सी फुलवारी दी ।
आज उसी ने हाय विधाता, ये कैसी लाचारी दी ।
पल भर में खुशियों का दर्पण, जरा चोट से तोड़ दिया ।
और दुखों का दरिया अपनों, के जीवन में मोड़ दिया ।
जिसके दुनिया में आने पर, सबने खूब बधाई दी ।
आज उसी को नम आंखों से, सबने मौन बिदाई दी ।
ऐसा दृश्य देखकर पत्थर, भी खुलकर रोये होंगे ।
और सदी के सारे लमहे, पीड़ा में खोए होंगे ।
जिन आंखों ने जिस भविष्य का, स्वप्न सुखद बोया होगा ।
आज उसी के मृत शरीर को, कंधों पर ढोया होगा ।।
जिसने अब तक जीवन के, थोड़े ही सावन देखे थे ।
जिसने इस दुनिया मे केवल, उजले दामन देखे थे ।
उसे नियति ने कैसे इतनी, जल्दी हमसे छीन लिया ।
और सभी के दिल पर ऐसा, घाव एक संगीन दिया ।
कितना निष्ठुर, निर्मम होगा, वह कातिल हत्यारा भी ।
जिसने साजिश रची और नन्हे बच्चे को मारा भी ।
क्या भोले चेहरे पर उसको, जरा तरस आया होगा ।
क्या भोली भाली आंखों ने उसको भरमाया होगा ।
क्या चाकू की नोंक गले के पास जरा ठहरी होगी ।
या उसके अंदर मानवता ही गूँगी बहरी होगी ।
क्या मासूम चीख भी उसके, दिल तक नहीं गयी होगी ।
जाने कैसी हालत दोनों, की उस वक़्त रही होगी ।
स्वाभाविक है उस कातिल की, सोंच बहुत विकृत होगी ।
और विषैले साँपों जैसी, ही उसकी फितरत होगी ।
तब ही तो नन्हे बच्चे पर, उसको दया नहीं आई ।
नन्हा सा प्रद्युम्न खड़ा था, और खड़ी थी निठुराई ।
निष्ठुरता ने कोमलता पर, ऐसे तेज प्रहार किए ।
नन्हा सा तन कब तक सहता, प्राण सहज ही त्याग दिये ।
समय बदल जायेगा लेकिन, रोज चांदनी रोयेगी ।
नन्ही शबनम की बूंदों से, सबकी आँख भिगोयेगी ।
जब यादों की हरी घास पर, शबनम सी बिखरी होगी ।
वहीं कहीं प्रद्युम्न नाम की, बूँद एक ठहरी होगी ।
निर्ममता की गूँज हमेशा चीखेगी चिल्लायेगी ।
कोमलता को कुचल स्वयं को, वह महान ही गायेगी ।
किन्तु सत्य है काँटे फूलों, के बस रक्षक होते हैं ।
वे पागल होंगे, मासूमों, के जो भक्षक होते हैं ।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’