चिंगारी
निगाहें मुज़्तरिब़ हैं , बहका -बहका सा रहता हूं ,
ज़ेहन में अजीब सी कशम़कश़ है ,
दिल में एक सोज़ जगाए रहता हूं ,
कुछ समझ कर भी कुछ समझ न पाता हूं ,
कभी हालात -ए -हाज़िरा को साज़गार नही पाता , तो कभी खुद को हालत -ए- ज़ार में पाता हूं ,
गलत और सही के नज़रिए में उलझा रहता हूं ,
इसी सोच में डूबा किसी नतीज़े पर पहुँचने से कतराता हूं ,
मस़ल्हतों पर यक़ीन कर ग़ौर नहीं कर पाता हूं ,
दिन गुजरता है इसी पश़ोपेश़ में ,
तो रात ब़ेचैन कटती है करवटों में ,
लगता है कोई चिंगारी दिल के किसी कोने में सुलग रही है ,
जो वक़्त की गर्दिश में बेबस , बगावत की लपट बनकर उभरने को बेताब़ हो रही है ,
जो जब जुनूँ बनके उभरेगी , तब चारों तरफ फैली हैव़ानियत को मिटाकर ही दम लेगी ,