चिंगारी
चिंगारी
भूख बेवजह नहीं भटकाती
मंदिर ,काबा,मस्जिद हर जगह हैं तलाशती ।
रात के सुर्ख़ अंधेरों में ये भूख कई गुना बढ़ जाती,
क्या क्या गुनाह हो जाते हैं
चार रोटी के जुगाड़ में,
कहीं हत्या, छीनाझपटी,
हेरा फेरी , झूठ
तो कहीं जिस्म की ख़रीद फ़रोख़्त हो जाती हैं ॥
दानव जैसी जीभ और सुरसा जैसे पेट का कोई समाधान नहीं हैं क्या
बेवजह की भूख का कोई निदान नहीं हैं क्या ,
अपनी भूख को शांत करने
जाने कितनों की बली हैं चढ़ाते,
भूल कर इंसानियत,क्यूँ शैतान हैं सब बन जातें॥
वैहसी दरिंदों की भयावह आँखें
आँखों से निकलते वो अंगारे
जैसे लील ही लेना चाहते हैं सब,
उपद्रव मचा हैं , कोहराम मचा हैं
दिल में दर्द का तूफ़ान मचा हैं ।
कैसे चैन से दो रोटी खा सकते हैं हम जब समाज में व्यभिचार बढ़ा हैं।
शोलों पर चलना दिन रात बस तपना ,
अपनों को खोने का डर,ये भयावह आवाज़ें ,
वक़्त बेवक़्त का तक़ाज़ा,उफ़ हर तरफ़ बस तांडव मचा हैं।
डॉ अर्चना मिश्रा
दिल्ली