चाहत
गीतिका
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हृदय में है बहुत चाहत तुम्हें अपना बनाऊं मैं।
हमेशा स्नेह से भरपूर लम्हों को बिताऊं मैं।
न मन में बात आए अब कभी भी दूर जाने की।
सभी कर्तव्य जीवन के जरूरी हैं निभाऊं मैं।
जिसे अपना समझते हो सभी है दोस्त मतलब के।
पड़ा अज्ञान का पर्दा कहो कैसे हटाऊं मैं।
जताते जा रहे मुझसे सभी हैं आज अपनापन।
किसे मैं दूर कर दूं पास किसको अब बुलाऊं मैं।
नहीं सोना अधिक अच्छा मगर जो व्यर्थ सोए हैं।
बहुत ही नींद प्यारी है कहो किस विधि जगाऊं मैं।
तुम्हारे साथ में जो हैं बिताए खूबसूरत पल।
बहुत जब याद आते हैं कहो कैसे भुलाऊं मैं।
प्रदूषित है यहां मिष्ठान देखो सब मिलावट से।
बताओ किस तरह से शुभ दिवाली को मनाऊं मैं।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य