चाहत
मेरी चाहत थी
कि हम आस -पास होंगे l
कि एक दूसरे के करीब होंगे
लेकिन न हो सका अबतक
जाने होगा ऐसा कब तक l
हर पल देता है दस्तक
मन के मीनारों को
जैसे तुम अब आई
जैसे तुम अब आई
होता हूँ निराश
लेकिन अब भी आस
जब संभालता हूँ स्वयं को
तुम्हारी बातों से भर जाता है
मेरे मन का वृन्दावन l
किसी मोड़पर मुड़ते हुए
कहीं से कहीं आते हुए
कहीं से कहीं जाते हुए
या कि सीधी सड़क पर
मुलाक़ात होगी हमारी
ऑंखें चार होगी हमारी
नजर से नजर को
नजीर और शुकुन मिलेंगे
कुछ नजराना तुम दोगी
कुछ नजराना मै दूंगा
मन कि बातें करेंगे
मन का पोर- पोर महक उठेगा
अंग – अंग सराबोर होगा
या तो अरमानों कि होली होगी
या ईद – मिलन होगा l
दिन अनगिन बीते
बांहे रहे रीते के रीते
न जाने कितनी बार
कितनी नावों में
कितनी बार चढ़े – उतरे
न जाने कितने फूलों को लेकर
कितने पुलों को पर किए
कि बिछरे यार कहीं मिले
चाँद की चांदनी में भी
सितारों की छाँव में भी
तलाशता रहा तुझको
शहर छोड़ना था तो
कहकर जाती
घर छोड़ना था
मै भी तुम्हारे हो लेता,
कभी रजनी ने सुलाया
कभी दिनकर ने जगा दियाl l
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@रचना – घनश्याम पोद्दार
मुंगेर