“चाहत ” ग़ज़ल
हर बला, सर से टल गई होती,
मेरी क़िस्मत, बदल गई होती।
देख लेता जो, मुस्कुरा के कभी,
आरज़ू, फिर मचल गई होती।
देखता एकटक, कैसे उसको,
ताब आँखों मेँ, भर गई होती।
आ जो जाता कभी, अयादत को,
मिरी तबियत, बहल गई होती।
नज़र उससे जो, मिल गई होती,
चाँदनी मुझमें, ढल गई होती।
हाथ दिल पे, कभी वो रख देता,
मिरी धड़कन, सम्हल गई होती।
दाद देता, कभी खुल के,”आशा”,
दिल की हसरत, निकल गई होती..!
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