चार कवितायें मुक्त छंद
मुक्त छंद
1-
कौन तुम ?
मुझे अर्धरात्रि में छोड़कर
जाने वाले !
पाहुन तो नहीं थे तुम ,
फिर कौन थे ?
अबोध दुधमुंहे शिशु को
अनाथ करने का ,
क्या हक था तुमको ?
शत्रु तो नहीं थे तुम?
चलो ,जाना था ,
चले जाते ।
पर कहकर तो जाते।
समेट लेती अंक में तुमको,
भर देती उत्साह से
कोई राह ही सुझा देती।
पर कहते तो एक बार ।
गूँगे तो नहीं थे तुम !!
बोद्धित्व स्वीकार था तुम्हें।
तात का कर्तव्य क्यों भूले आर्य ?
प्रतीक्षा तो की होती
अरुणोदय की।
सूझ जाता कोई मध्य मार्ग।
आवेशित तो नहीं थे तुम??
@पाखी_मिहिरा
2–: उम्र के इस पड़ाव पर
पथराई सी आँखे
ढूंढती है किसी को ।
सुन सके जो व्यथा
समझ सके अश्रु जल
पर सभी अपेक्षाओं पर
फिर जाता है पानी।
और भग्न हृदय से फिर
मृत्यु ही सन्निकट दिखती है
जहाँ सन्नाटे के सिवा
कुछ भी तो नहीं
आखिरी पड़ाव !!
पाखी
3–
एक अनाम शोर
दिन रात मथता रहता है
दही बिलोती मथानी सा।
और अंर्तमन के उस शोर
को अनसुना करना
कितना कष्ट देता है।
उस शोर के आगे
सभी हलचल मौन ।
कलरव मौन ,
चीत्कार मौन ,
चीखते वाहनों का शोर या कि
भीड़ का उन्मादी शोर
सभी अनसुने रह जाते हैं।
भीड़ में भी अकेले,
अकेले में भी
जैसे भीड़ के बीच।
पाखी_मिहिरा
4–प्रभु ..
आज पूछती हूँ
प्रश्न तुमसे ।
पर आज भी अनुत्तरित
ही रहेगा न!
शाश्वत् मौन ।
स्वयं ही ढूंढती हूँ
कुछ सवालों के जबाव
पर खुद से भी कहाँ
खोज पाते हैं जबाव।
मेरे होने का अर्थ क्या ?
न भी होती तो कुछ बिगड़ता क्या?
यह दुनियाँ
बच्चों सी ही होती तो ?
सारे विषाद ,झगड़े पल में
यूँ मिट जाते।
न देखनी पड़ती युद्ध की
विभीषिकायें।
न मित्रों के बीच अलगाव
न होती साजिशें ,षडयंत्र
न मंदिर मस्जिद के बीच
बाँटा जाता तुमको ही ।
हे प्रभु !कब तक रहोगे मौन ?
कब …तक!!
@पाखी_मिहिरा