चारपाईयों के पाये…
गाँव मे सूने घर के,
आँगन मे पड़ी,
उन चारपाईयों के,
‘पाये’ अब मुड़ चुके हैं…
उनकी बुनी ‘निवारों’ के,
‘धागे’ अब सड़ चुके हैं,
क्यूंकि घर के सब ‘परिंदे’,
अब ‘शहर’ को उड़ चुके हैं…
उन चारपाइयों मे किसी का,
कोई ‘बिस्तरा’ नहीं लगता,
अकेला पड़ा है बरामदा,
वहाँ कोई मज़मा नहीं लगता…
अब नहीं गूँजती लोरियाँ,
किस्से हंसी ठिठोली के,
सूना पड़ा वो आँगन,
अब अच्छा नहीं लगता…
उस घर से ‘अनजान’ अब भी,
गाँव आते तो सभी हैं,
लेकिन अब वो घर,
वैसा ‘हरा’ नहीं लगता…
बरसों से यूं पड़े वो,
अब ‘अकड़’ चुकी हैं,
उन चारपाइयों को कोई,
अब अपना नहीं लगता…
©विवेक’वारिद *