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18 May 2024 · 1 min read

चाय वाले कप में पानी

वह अक्सर आता है,
पछताता ही आता है।

वह कहता:
पैसे दो पैसे की अब बात नहीं है,
अब तो रूपिए मिलते हैं,
रोटी भी अनगिन मिलते हैं
भात भी कोई -कोई देते हैं
लेकिन कहता है–
पानी के लिए तरसते हैं ।

कुएं सूखे, चापानल सूखे,
सुखे हैं नल का चबूतरा भी,
बिजली गई अभी घूमने
घूमकर आयेगी तो आयेगी पानी,
घर में भी, चबूतरे में भी,
सरकारी पानी ।
घूमकर नहीं आयेगी बिजली तो
रात में आयेगी टैंकर में पानी ।
तब तक बचाकर रखना है
घरों के मटके में पानी
हो गई है बेमानी
देना प्यासे को पानी ।

मेरे मालिक!!
हलक सूखे हैं,
तराश लगी है,
सूख गए है शायद
मेरे पेट का पानी।
गर्मी का बुरा हाल है,
सड़कों पर लू की बिगड़ी चाल हैं,
थक भी गया हूं चलते -चलते
हरदम यही रटते -रटते
‘बाबा पानी ! भैया पानी!
बहना पानी ! मैया पानी!
रुपिया दो, नहीं दो
कपड़े दो, नहीं दो
पिला दो हमें
मन -भर पानी।

कहीं -कहीं ,कोई – कोई
पिला भी देते हैं पानी
न भींगते हैं होठ,
न कंठ भींगते है
न बुझती है प्यास
लगी रहती है तराश।
क्योंकि लोटे में नहीं
ग्लास में नहीं
मेरे कटोरे में भी नहीं
चाय वाले कप में नापकर
मिलती है पीने को पानी।

वह यह भी कहता है:
रुपिया रखना है रखो बैंक में
घर में रखो संचित कर पानी
नहीं रखना है नादानी।
*********************************
स्वरचित : घनश्याम पोद्दार
मुंगेर

Language: Hindi
28 Views
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