चाय की घूंट और तुम्हारी गली
मैं जब भी उस गली से गुजरता हूं,
थोड़ा ठिठकता हूं थोड़ा संभलता हूं
तुझसे नजरें बचाकर हरबार चलता हूं
ढलता हूं सूरज सा चांद सा निखरता हूं
यादों को ज़हन में जिंदा कर जलता हूं
उस गली में सैर को हर रोज़ निकलता हूं।
जीता हूं सच्चाई को कल्पनाएं मसलता हूं,
हर वक्त बे वक्त उधेड़ी हुई जज़्बात सिलता हूं।
यादों व ख्यालों को शब्दों की शक्ल देखकर,
चाय की तरह हर रोज़ एक एक घूंट निगलता हूं।