चांद सा खुबसूरत है वो
चांद सा खुबसूरत है वो
लेकिन मैं उसे पाना नहीं चाहती।
मेरे अस्तित्व का दर्पण है वो
और मेरी हर नज्म का सार भी है।
मेरे बगीचे का फूल है वो
जिससे मेरे चेहरे का नूर सजता है।
उसे दूर से चाहना मंजूर है मुझे
बस उसे खोकर जीना नहीं चाहती।
वक्त का तकाज़ा तो देखो…
आज हकीकत से मेरे दूर है वो
पर मेरी आखों का तसव्वुर आज भी वो है।
— सुमन मीना (अदिति)
लेखिका एवं साहित्यकार