चहचहाते जा रहे हैं
* गीत *
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भोर की वेला है पाखी चहचहाते जा रहे हैं।
गीत प्यारा कर्णप्रिय हमको सुनाते जा रहे हैं।
हो गया स्वर्णिम सवेरा नीड़ से बाहर निकलते।
फड़फड़ाते पंख अपने खूब हैं देखो चहकते।
इंद्रधनुषी रंग के हैं मन सभी का मोह लेते।
आ गये घर द्वार की शोभा बढ़ाते जा रहे हैं।
भोर की वेला है पाखी…….
है विषय चिंता भरा क्यों लुप्त कुछ पाखी हुए हैं।
भूल मानव का कुफल ये व्यर्थ ही भोगे हुए हैं।
है विषय गंभीर इस पर ध्यान धरना है जरूरी।
मेघ खतरों के भयावह क्यों घुमडते जा रहे हैं।
भोर की वेला है पाखी…….
है समय हम प्रकृति के साथ मिल जीवन बिताएं।
और जहरीले प्रदूषण पर सतत अंकुश लगाएं।
नील नभ जल थल सभी में स्वच्छता हो पारदर्शी।
आत्मचिंतन क्यों नहीं हम आज करते जा रहे हैं।
भोर की वेला है पाखी…….
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– सुरेन्द्रपाल वैद्य, मण्डी (हि.प्र.)