चश्मे
एक के ऊपर एक
परत-दर-परत चढ़े होते हैं,
आँखों पर तरह-तरह के चश्मे।
पर, न तो
नाक पर उनके
वजन का अहसास होता है;
न ही कानों पर उनका बोझ;
इसीलिए वो समझ नहीं आते
पता ही नहीं चलते
बोध ही नहीं होता
चढ़े रहते हैं ये चश्मे
एक के उपर एक
गुरुर बनकर।
पर दूसरों के चश्मे
सहज ही दिख जाते हैं,
और हम
सहन नहीं कर पाते
दूसरों की आँखों पर चढ़े चश्मे
और तत्पर हो जाते हैं
उतारने को
दूसरों के चश्मे।
किसी और का चश्मा हटाकर,
एक चश्मा और चढ़ जाता है
हमारी आँखों पर।
गुरुर होता है कि आज
एक चश्मा उतार दिया
चढ़ा था जो उसकी आँखों पर
उसका गुरुर बनकर;
और इस गुरुर में
चढ़ जाता है
एक और चश्मा,
हमारी आँखों पर।
पर जब दिखते हैं चश्मे
चढ़े हुए दूसरों की आँखों पर
तो क्या?
वो सचमुच होते हैं उन आँखों पर
क्या वो सचमुच नज़र आ रहे हैं
या फिर
है ये हमारी आँखों पर चढ़े
चश्मों की नज़र का ही भ्रम?
क्या देख पाते हैं हम
हटाकर परे
अपनी आँखों पर चढ़े
सारे चश्मे?
क्या देख पाते हैं?
एक निर्दोष निरपेक्ष दृष्टि के साथ;
या फिर
वो चश्मे दिखते हैं तब
जब प्रकाश की किरण
विपथित हो चुकी होती है
चश्मों के लेंस से गुज़रकर,
लेंस के पदार्थ की
प्रकृति के अनुसार?
जैसे जिस तरह से
विपथित या परावर्तित
वैसे ही नज़र आने लगते हैं
उन चश्मों से चेहरे।
पर क्या?
इन चश्मों से छुटकारा
संभव है पाना,
वो जो ढलते गए हैं
शनैः शनैः
पहले
नाक, आँख, कान
और फिर
पूरे व्यक्तित्व के साथ।
क्या संभव है?
हटा पाना उन चश्मों को
जो कभी दिखते नहीं
जबकि होते हैं
हमारी नाक पर,
ठीक वैसे जैसे
दिखता नहीं कभी भी
जबकि होता है स्थिर
गुस्सा किसी की नाक पर।
प्रार्थना करता हूँ कि
छूट जाएँ ये
पर डरता हूँ कि
इन चश्मों के छूटने के साथ,
इस चश्मा चढ़ी दुनिया में
कहीं मैं अलहिदा न छूट जाऊँ;
इसीलिए, नहीं छूट पाते
ये चश्मे
क्योंकि
सच्चे दिल से ये प्रार्थना करना
नहीं संभव हो पाता है, सच में।
छोड़कर मुझे,
दिखते हैं सभी को
मेरे चश्मे,
इसीलिए कभी-कभी
उतर जाते हैं ये
जब कोशिश करता है
कोई और मेरे लिए;
चाहे कुछ पल के लिए ही
या फिर तब जब
गड़ने लगते हैं ये
खुद की ही नाक पर
होने लगती है चुभन
इनकी वजह से आँखों में,
जब कभी
मैं ही रख देता इन्हें
नाक से उतारकर
ताक पर।
और तब दिखते हैं
ताक पर रखे हुए
नाक से उतरे हुए
ये चश्मे।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”