चल रे मन और कहीं चल
चल रे मन और कहीं चल
चल रे मन और कहीं चल
बहती हो धारा प्रशांत सी
दिवा निशि, निशि दिन कल कल
चल रे मन और कहीं चल।
भासमान जो होता है
आभास नहीं हो पाता है
जीवन दिखता जैसी आंखें
उल्लास नहीं हो पाता है
चल दे थक जा, चल दे थक जा
अपना ही रूप निरख चल
चल रे मन और कहीं चल।
जब हृदय कुसुम मुस्काता है
मृण्मय चिन्मय हो जाता है
आएं चाहे लाखों बाधा
पथ पंकज सा खिल आता है
हो नित प्रतिष्ठ निज अन्तस् में
हर लेगा काल विकल
चल रे मन और कहीं चल।
लहरों में प्रतिबिम्बित हो कर
वह खण्ड खण्ड हो जाता है
जितना चिंतन उतनी लहरें
वह रूप बहुल कहलाता है
आएं लहरें जाएं लहरें
तू हो गम्भीर अचल
चल रे मन और कहीं चल।
बहती हो धारा प्रशांत सी
दिवा निशि, निशि दिन कल कल
चल रे मन और कहीं चल।
डॉ विपिन शर्मा