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20 Oct 2021 · 1 min read

चलो,वहाँ सूरज है

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कठिन ही है शहर, गाँव के लिए।
और गाँव भी अत्यंत कठिन शहर के लिए।
सभ्यता ऐसी कि कर देता है फर्क।
संस्कृति इतनी सी कि हर बात पे तर्क।
खुरदुरे और स्निग्ध चेहरे हैं गाँव व नगर के
क्रमशः।
अभिवादन किन्तु, विपरीत।
नहीं है शहर में गाँव का कोई अधिकार।
फुटपाथ पर औंधे मुंह।
शहर का हर अधिकार गाँव मानता है।
‘नहीं’ का हश्र जानता है।
अब सभ्यता मनुष्य नहीं, होती है अर्थ की।
विजय समर्थ की।

कैसे हुआ होगा सभ्य और क्यों पहला आदमी?
यह सवाल जंगली सभ्यता देख-देख होता है अब भी।
कि
कैसे बदला स्वर अक्षरों में और अक्षर शब्दों में ।
शब्दों को पहचान पंच-तत्वों और वृक्षों में।
अद्वितीय और अचंभा हैं सभ्यताएँ ।
व्यवस्थाएँ दृढ़,शुभ,कल्याणकारी जितनी
उतनी ही सुंदर हैं सभ्यताएँ ।
पहला सभ्य जो था वह मनुष्य ही था क्या?
क्यों नहीं चींटीयाँ !
संग्रह कि अनिवार्यता स्यात् जनक है।
छिना-झपटी छोड़ने की आवश्यकता जननी।
सूर्य उज्जवल था,जीवन किन्तु,व्यक्ति और व्यक्तित्वहीन।
चाँद अमावस सा अंधेरा,भयवाह रात
और
क्षुधा हर क्षण होता हुआ नवीन।
शायद क्षुधा की तीव्रता से तिलमिलाया होगा मन ।
चींटियों के अस्तित्व-व्यूह की विलक्षणता ने
उत्पन्न किया होगा प्रतिदिन के विकट युद्ध का स्मरण।
वह नहीं होगा शतरुपा का मनु,सुव्यवस्थित।
जो सभ्य हुआ होगा वह जाति का पहला देवता-व्यथित।
उसने सूरज में देखा होगा मात्र ज्वाला नहीं उजाला।
अंधकार के तपिश को नहीं होगा उसने टाला।

Language: Hindi
288 Views
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