चली जा रही है उमर धीरे धीरे..
चली जा रही है उमर धीरे धीरे….
मन ही मन, मन में बातें कर ,
मन को यूँ ही समझा लेती हूँ,
चली जा रही है उम्र धीरे धीरे
खुद से ही बतिया लेती हूँ।
बाहर जाना छोड़ दिया है,
हाथ मिलाना छोड़ दिया है,
बढ़ती उम्र, उलझने सुलझा लेती हूँ,
खुद ही खुद से बतिया लेती हूँ।
अब तेरी-मेरी छोड़ मन की करती हूँ
भावों को कागज पर उकेर कर
उम्र के पड़ाव में पढ़कर खुश हो लेती हूँ
खुद ही खुद से बतिया लेती हूँ।
अब ना बात किसी की पीड़ा देती
न मन किसी और का दिल दुखाता
अब मन में जो आता वही करती हूँ
चलती उम्र संग धीरे धीरे चल लेती हूँ।
अब मेरी कलम मेरी सखी है
खुलकर दिल की कहती हूँ
कोई सुने या न सुने फर्क नहीं जी
खुद ही पढ़कर मुस्कुरा लेती हूँ।
अब भी गृहस्थी के झंझटों से जुड़ी हूँ
उम्र बढ़ रही है पर औरत हूँ ना
कभी-कभी मोहमाया में जुड़ जाती हूँ
फिर दूसरों का सोचने लग जाती हूँ।
लेखन ने सोच को विस्तृत कराया है
अपने लिए जीना भी सिखाया है
चाहे उम्र चली जा रही है धीरे धीरे
पर लेखन ने मन को युवा बनाया है।
नीरजा शर्मा