चलते रहना ही जीवन है।
कर्म पथ पर आज क्यों?
तू थक रहा ‘ जन’ है।
कर्मभूमि यह! समझ इसे,
गांठ बाँध दें मन में।
कहती धरा ,कहता अंबर
चलते रहना ही जीवन है ।१।
देख नभ में हो रहा उदय-अस्त,
प्रभाकर- सुधाकर में-
समय-समय पर गमन-आगमन
सीख! समझ, कर चिन्तन।
हृदय में करना भी मंथन है
चलते रहना ही जीवन है ।२।
बदलती ऋतुएँ- शरद, हेमंत-
ग्रीष्म, शीत, वर्षा और बसंत।
बढ़ती नदियाँ, बढ़ते वृक्ष
खग-विहग करते विचरण है
नियम प्रकृति का परिवर्तन है
चलते रहना ही जीवन है ।३।
काल-चक्र युग-युगांतर से
बदलता अपना चक्र है
आदि-अनादि, आधि-व्याधि
काल के ही वश में है
सम्बंध प्राकृतिक सघन है
चलते रहना ही जीवन है ।४।
✍संजय कुमार “सन्जू”
शिमला हिमाचल प्रदेश