चलते-चलते आख़िर
चलते-चलते आख़िर ठहर जाना पड़ता है
बहुत जी लेने के बाद मर जाना पड़ता है।
जो बिला वजह भटक रहे हैं कह दो उनसे
रात होने से पहले हमें घर जाना पड़ता हैं।
बात हर बार हिम्मत दिखाने की नहीं होती
घरबार की बात सोचके डर जाना पड़ता है।
राह-ए-ज़ीस्त में कई बार ऐसे मोड़ आते है
ठहरने की सोचके भी गुज़र जाना पड़ता है।
हमने ये अक़्लमंदी बड़ी मेहनत में कमाई है
गर डूबने लगे कश्ती तो उतर जाना पड़ता है।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’