चराग़ों की तरह चुप चाप जल जाते तो अच्छा था
दिलों के ज़ख़्म गर लफ़्ज़ों में ढल जाते तो अच्छा था
वो मेरी दास्तां सुनकर पिघल जाते तो अच्छा था
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न होता फिर कोई शिकवा हमारी कम निगाही का
तुम्हारी जुल्फ के ये ख़म निकल जाते तो अच्छा था
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किसी से फिर फ़िराक़े यार के क़िस्से नहीं कहते
अगर हम वक्त की सूरत बदल जाते तो अच्छा था
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मरीज़े ग़म दुआओं से कभी अच्छे नहीं होते
अगर ये वक्त रहते खुद सम्भल जाते तो अच्छा था
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पतंगों की तरह हमसे नुमाइश भी नहीं होती
चराग़ों की तरह चुप चाप जल जाते तो अच्छा था
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नज़र से हो गये ओझल बड़ा अच्छा किया सालिब
मेरी सोचों की हद से भी निकल जाते तो अच्छा था