चमकी बुखार बना अभिशाप
आँखों के तारे बने,देख-देख खुशहाल थे।
अपने स्वप्न पंख लगा,नभ उड़ने को लाल थे।।
चमकी बुखार काल बन,आया घर में एकदिन।
सब कुछ घर का लूट के,छोड़ गया बस सूनापन।।
चमकी बुखार ने लिया,बचपन प्यारा छीन रे।
बेटा-बेटी खो दिए,वो माँ-बापू दीन रे।।
नेता-नेत्री मौन हैं,खतरा सुन अनजान भी।
कर सकते थे ना किया,ठोस वो समाधान भी।।
मूल्य जान का कुछ नहीं,कैसा संसद लोक है।
उसपर क्या बीती अरे,जिस घर मातम शोक है।
जिसने अपना वोट दे,सुरक्षा अपनी चाही यहाँ।
शिक्षा-स्वास्थ्य भूल के,विकास करते हो कहाँ?
पर दुख अपना मानिए,मानवता की शान है।
जीता परहित के लिए,होता वही महान है।।
रिश्ते-नाते प्रीत का,जिनको होता ध्यान है।
खुद से बढ़के मानते,पुत्र-पुत्री की जान है।।
विभाग अपना देखिए,कीजिए क्षेत्र पहचान भी।
कैसे जीते लोग हैं,रखिए सब संज्ञान भी।
योगासन पर जोर है,सुविधा भी तो दीजिए।
स्वास्थ्यी मंत्री आइए,अस्पताल सुध लीजिए।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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