चतुष्पदी
(१)
पापा
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दुनिया के हर सुख से बढ़कर, मुझको प्यारे तुम पापा।
मन के नभ में सूरज, चंदा और सितारे तुम पापा ।
ओढ़ तिरंगा वापस लौटे, बहुत गर्व से कहता हूँ,
मिटे वतन पर सीना ताने, कभी न हारे तुम पापा।
(२)
गद्दार
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गूंज रही हैं सभी दिशाएं, विजय-घोष के नारों से।
नापाक़ी अब काँप उठा है, वीरों की हुंकारों से।
मगर, न भूलो साथी मेरे, खड़ी चुनौती यह भी है,
एक जंग लड़नी है बाकी, भीतर के गद्दारों से।
(३)
घर-परिवार
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हरियाले कलरव से गुंजित, प्यारा सा संसार मिला।
घोर अकेलेपन से लड़कर, जीने का आधार मिला।
बरसों से सूनी बगिया में, ज्यों ही पौध लगाई तो,
मैंने पाया मुझको मेरा, बिछुड़ा घर-परिवार मिला।
(४)
सपना
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शब्द पिरोने का यह सपना, इन नैनों में पलने दो।
मैं राही हूँ लेखन-पथ का, मुझे इसी पर चलने दो।
जीवन रूपी सफ़र सुहाना, पता नहीं कब थम जाये,
मेरे अंतस के भावों को, कविता में ही ढलने दो।
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– राजीव ‘प्रखर’
मौहल्ला डिप्टी गंज,
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