चंद मोहलतें
अब कहां फुर्सत के वो दिन और रातें ,
जब मिलकर करते थे पहरों बहुत बातें ।
तुम्हें भी गर्ज कहां वक्त को रोकने की ,
ताकि हो सकें हमारी कुछ मुलाकातें।
मसरूफियत मुहोबत पर हावी हो गई ,
एक शिकन सी जबीं पर ले रही चाहतें।
हम फिर भी इंतजार करते रहे तुम्हारा ,
इसी उम्मीद से शायद मिल जाए राहतें ।
मगर न तुम आए न तुम्हारा कोई पैगाम,
बोलो!क्या ऐसे निभाई जाती है मुहोबतें !
हम तुम्हें बेवफा भी कहें तो कैसे कहें ?
तुमने थोड़ी तो की होंगी हम पर इनायतें।
उन इनायतों का ही वास्ता देते है तुमको ,
गर है थोड़ी सी मुहोबत तो निकालो फुर्सतें।
वरना फिर न कहना की रूठकर चल दी “अनु”,
हमें दी नहीं रिश्ता ए दोस्ती निभाने की मोहलतें।