जमाना नहीं शराफ़त का (सामायिक कविता)
तुम किसी के साथ विनम्रता से पेश आओ
वे तुम्हें बुद्धजिल कमज़ोर समझेंगें
वेबज़ह चलती ट्रेन से दे देंगें धक्का
अब तो जमाना नही रहा शराफ़त का.
अपने फायदे के ख़ातिर
अब लोग बहुत चालाक हो गए
हमलोग शराफ़ती करते रहे
और वे चुपके से सबको ठगते रहे.
हर कोई अपने फायदे में है लगा हुआ
रिश्ता नाता मानवता ये सब तो
अब किताबी बातें हो गई
जमाना नहीं शराफ़त का.
अब शारीफ़ बने रहोगे तो
लोग तुम्हें वेबकूफ़ समझेंगें
चुपके से करेंगें चालाकीयां
तुम्हें तो वह मिनटों में ही ठग लेंगें.
शराफ़त से किशन, अब कोई नहीं सुनता?
तुम्हारे हितों के बारे में न कोई सोचता?
उठो जागो संघर्ष करो अपने अधिकारों से
वरना जमाना नहीं शराफ़त का.
शराफ़त से कितना भी गिड़गिड़ाओगे
बिना लड़े तुम्हें कोई अधिकार नहीं मिलेगा
कानूनी पन्ने तो महज़ दिखावा है.
इतना समझ लो जमाना नहीं शराफ़त का.
कवि- डाॅ. किशन कारीगर
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