चंचल मोर सा मन
चंचल मोर सा मन मेरा पंछी बन ऊड जाता है,
आसमान के तारों में।
कभी गुम हो जाता है, वादियों के नजारों में ।
ऊथल पुथल मच जाती, सागर- सी गहराई में ।
कभी गीत गाता है, विराने और तनहाई में।
स्वच्छंद घूमता है, बहारों की गलबाही में।
खयालों में चला जाता है, मरू की तराई में।
झगड़ा कर बैठता है, बातअपनी -पराई में।
पर्वतों पर घूमता है, बर्फ की ठंडाई में।
मन कभी आता है, कागज़ पर लिखाई में।
आखिर शांत हो जाता है, मेरी सच्चाई में