‘घृणा से प्रश्न और संवाद’
घृणा! तुमसे कुछ प्रश्न मेरे, जो अक़्सर दिल तड़पाते हैं रे!
क्यों जल्दी से बढ़ जाती हो, तिल का ताड़ बनाती हो!
रिश्तो में गाँठें पड़ जातीं, तुम चुपके से भरमाती क्यों!
तुम तो अमरबेल जैसी, सारी दुनिया में फैली क्यों!
जहाँ देखतीं प्रेम अमिट, ज़हर घोल कर जाती हो!
संदेह-झूठ की सखी तुम, किसी तरह न वश में आती हो!
घृणा के सागर में तुम क्यों, यूँ सारा जहाँ डुबोती हो!
सागर के खारे पानी सा, ख़ुद को अस्वीकृत बनाती हो!
जो बात प्यार में होती है, नफरत उसको पा सकती कहाँ!
जो सुख त्याग में मिलता है, उसकी अनुभूति न पाती क्यों!
घृणा तुम्हारा दामन पकड़ा, महाभारत तुमने करा डाला!
जहाँ रामराज छोड़ा प्रभु ने,धरती पर स्वर्ग बना डाला!
क्या अभी नहीं तुम संभली हो, कितनी नस्लें यूँ निगलोगी!
धरती बंजर हो जाएगी, जब विष की फसलें बो दोगी!
अनुनय मेरा स्वीकार करो, प्रकृति का न्याय याद रखो!
अपने कलंक क्यों नहीं धोतीं, क्यों नहीं प्रेमांकुर बोतीं!