घृणा के बारे में
घृणा उगने उगाने के लिए
सबसे उर्वर भूमि है धर्म
धर्म में पड़कर एक आदमी
दूसरे धर्म के आदमी से इतना अलग हो जाता है
भंगुर व्यवहार हो जाता है कि
वह आन धर्म के आदमी से
दूरी, द्वेष, विद्वेष और घृणा पालने लगता है
घृणा तब भी हम धर्मी मनुष्यों को चुन लेती है
जब हम उसको सीढ़ी बना
सत्ता और शक्ति पाने का हवस पाल लेते हैं।
यह कल के पुरातन काल का भी सच था और आज के आधुनिक समय का भी है सच है
भारत इक्कीसवीं सदी की
विज्ञान और तकनीक से समृद्ध होती
लगभग एक चौथाई जमीं को नाप चुका है, मगर, जनता घृणा के सौदागर को
विज्ञान और तकनीक को चूस कर
अवैज्ञानिक विचार और अंधविश्वास को
सहलाने वालों को
अपना नेता चुन रही है।
घृणा–व्यापार का
जबकि विज्ञानिक और तकनीक से
तनिक भी मेल नहीं
घृणा गाव–तकिया बनी हुई है
घृणा का व्यापार कर
फलने फूलने वालों का!