“घूँघट” एक प्रथा या सजा?
हया जब नज़रों में है , तब ये घूँघट क्यों है?
सम्मान दिल से दिया है, तो पर्दे का झंझट क्यों है?
क्यों थोपा है आपने ,हम पर घूँघट का बंधन।
यह कैसी है साज़िश? यह कैसा है अपनापन?
प्रथा तो एक-सी , होनी थी दोनों के लिए !
साथ दे हम आपका ,और आप जियो केवल अपने लिए।
गर हम निभाए हर ज़िम्मेदारी, तब यह दहशत क्यों है?
सम्मान दिल से दिया है, तो पर्दे का झंझट क्यों है?
क्यों आँकते हो हमें , हर वक्त लिबास से?
क्यों न पहने हम कपड़े, अपने हिसाब से?
लांछन हम पर लगाते हो आप, बड़े ही शौक़ से!
क्या बजती है ताली, कभी भी एक हाथ से?
हमारे हिस्से में ही , ये उल्फ़त क्यों है ?
सम्मान दिल से दिया है ,तो पर्दे का झंझट क्यों है?
हम भी पले हैं, बड़े ही नाज़ से ,
हमें भी माँ ने खिलाया, अपने ही हाथ से ,
केवल आप ही नहीं है, घर में राजा बेटा !
पापा ने भी, अपनी परी को कभी नहीं डाँटा;
हमारे आगे बढ़ने से , आपको शिक़ायत क्यों हैं ?
अरे! सम्मान जब दिल से दिया है, तो यह पर्दे का झंझट क्यों है?